उपासना अर्थात पूजा व साधना ये दोनों पृथक-पृथक व निश्चित ही एक दूसरे की विपरीत अवस्थाएं होती हैं ।
उपासना अर्थात पूजा करके किसी भी पशु, पक्षी, मनुष्य, देव, दानव को प्रसन्न करके अपने कार्य कोई भी सिद्ध करा सकता है, किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं होता है कि पूजा करने वाले ने अपने पूज्य को किसी भी सीमा तक जान लिया हो, क्योंकि उपासक की सीमा किसी को प्रसन्न करके अपने कार्य सिद्धि कराने तक की ही होती है, न कि पूज्य तक की ।
यह परमसत्य है कि अपने पूज्य से तो वह उपासक स्वयं ही दूर भागता है, कि कहीं उससे कोई त्रुटि न हो जाए ओर उसका पूज्य रूष्ट न हो जाए ।
जबकि साधक अपनी साधना के द्वारा अपने साध्य को उसके समस्त गुण, धर्म, प्रवृत्ति, प्रकृति, शक्तियों व अवस्थाओं सहित स्वयं में ही आत्मसात कर लेता है ।
जिसका अर्थ यह हुआ कि साधक को किसी को प्रसन्न करने की “मजबूरी” नहीं रह जाती है, स्वयं में ही वह शक्ति समाहित हो चुकी होती है, जिसके परिणाम स्वरूप अपने सभी कार्य करने की क्षमता साधक में ही विकसित हो जाती है ।
वैसे यदि किसी को बुरा न लगे तो मेरी भाषा में उपासक व साधक की तुलना नौकर व मालिक से होती है ।
जय त्रिपुरेश्वरी मम देहचक्र संचारिणी ।
द्वारा :- श्री नीलकण्ठ गिरी महाराज
(प्रकृति व देह तन्त्र रहस्य, 120/1 स्वाधिष्ठान चक्र रहस्य, 04/09/2018)