हमारे मूल वेदों में कहीं पर भी श्रीचक्र या श्रीयन्त्र का वर्णन नहीं है, वेदों में केवल संहार चक्र व सृष्टि चक्र का ही वर्णन है ! और संहार चक्र व सृष्टि चक्र का स्वामी अवस्था (समय/काल) है जिसे हम जन्म के बाद बाल्य, तरुण, प्रौढ़ व वृद्धावस्था के बाद पुनर्विलय (मृत्यु) के रूप में जानते हैं ! श्रृष्टि के प्रारम्भ काल से केवल “सिद्ध भैरवी चक्र” ही सृष्टि चक्र व संहार चक्र की एकमात्र दृश्य व ज्ञात संरचना रही है । तथा प्रत्येक जीव की देह शूक्ष्म अथवा स्थूल रूप में “सिद्ध भैरवी चक्र” में ही व्याप्त अथवा विभक्त है ।
श्रीयन्त्र की सम्पूर्ण एवं मूल संरचना का वर्णन ब्रह्माण्ड पुराण के उत्तर खण्ड में महामहिम श्री हयग्रीव जी द्वारा श्री महर्षि अगस्त्य के सम्मुख भगवती श्री ललिता महात्रिपुरसुन्दरी जी द्वारा भण्डासुर वध एवं श्री ललिता माहात्मय का बखान करने पर व्यक्त हुआ है । जो कि “श्री ललितोपाख्यान” के नाम से प्रसिद्ध है । “श्री ललितोपाख्यान” के अनुसार भगवती श्री ललिता महात्रिपुरसुन्दरी जी द्वारा भण्डासुर वध हेतु चतुःषष्ठ (चौंसठ) व्यूह रचनायें की गई थी । वह सभी व्यूह रचनाएं शक्ति के विभिन्न चक्रों (यन्त्रों) के स्वरूप में हैं, जिनमें से श्रीचक्र, गिरिचक्र, गीतिचक्र, गेयचक्र, किरिचक्र, ऋतुचक्र, कामचक्र आदि षोडश (सोलह) प्रमुख चक्र हैं उनमें से भी श्रीचक्र (श्रीयन्त्र) सबसे प्रमुख एवं विख्यात है ।
भण्डासुर वध हेतु भगवती श्री ललिता महात्रिपुरसुन्दरी जी द्वारा सैन्य व्यवस्थापन की संरचना एवं व्यूह रचना ही वर्तमान श्रीयन्त्र की संरचना थी, जिसके केन्द्रीय भाग की संरचना “सिद्ध भैरवी चक्र” की संरचना है ! अतः भगवती श्री ललिता महात्रिपुरसुन्दरी जी द्वारा भण्डासुर वध के सम्पूर्ण प्रकरण के ज्ञाता एवं सर्वप्रथम श्री महर्षि अगस्त्य को भगवती श्री ललिता महात्रिपुरसुन्दरी जी की महिमा एवं उनके द्वारा भण्डासुर वध हेतु सैन्य व्यवस्थापन की संरचना का बखान करने वाले महामहिम श्री हयग्रीव जी एवं आनंदभैरव, कुबेर, सूर्य व इन्द्र आदि दैवीय शक्तियों द्वारा सिद्ध भैरवी चक्र को ही अंतर्दशार, वाह्यदशार व चतुर्दशार आदि का सृष्टिक्रम में विस्तार कर श्रीचक्र या श्रीयन्त्र के रूप में स्थूलाकृतिक विस्तार किया गया है ।
श्रीविद्या के वर्तमान में शेष जीवित बचे तीन सम्प्रदायों में से लोपामुद्रा व आनन्द भैरव सम्प्रदायों एवं इनकी कामराज, दत्तात्रेय व वामाक्षेपा आदि परम्पराओं में श्रीयन्त्र में 2916 देवी देवताओं की सामूहिक अदृश्य शक्ति विद्यमान मानी जाती है । वहीँ श्रीविद्या के सबसे प्राचीन “हयग्रीव सम्प्रदाय” की मात्र शेष दो जीवित परम्पराओं “कपिलनाथी परम्परा व कैवल्यानन्दी परम्परा” में श्रीयन्त्र में 3618 देवी देवताओं की सामूहिक अदृश्य शक्ति विद्यमान मानी जाती है । ओर इसी प्रकार से इन सम्प्रदायों में श्रीचक्र (श्रीयन्त्र) की संरचना एवं पूजा पद्धतियों में भी भेद दृष्टिगोचर होता है ।
“श्री ललितोपाख्यान” में वर्णित समस्त चतुःषष्ठ (चौंसठ) व्यूह रचनात्मक चक्रों (यन्त्रों) की विस्तृत एवं मूल जानकारियां व पद्धतियां केवल “हयग्रीव सम्प्रदाय के श्रीविद्या साधकों” के पास ही उपलब्ध हैं, जिनको परम्परागत स्तर पर ही अग्रसारित किया जाता है । इसीलिए “हयग्रीव सम्प्रदाय एवं उसकी श्रीविद्या साधना परम्पराओं व श्रीचक्र (श्रीयन्त्र) की संरचना तथा पूजा पद्धतियों को” सबसे समृद्ध माना जाता है ।