इस सम्पूर्ण सृष्टि की रचना “ऊर्जा एवं पदार्थ (शक्ति व तत्व)” के रसायनिक संयोग से एक बहुत ही सुन्दर रसायनिक दुर्घटना मात्र है, तथा ऊर्जा ओर पदार्थ से ही यह सृष्टि सृजित हुई है जिसमें ऊर्जा ओर पदार्थ के संयोग से उत्पन्न विभिन्न न्यूनाधिक तत्व व शक्ति मिश्रित पिण्डों व अवस्थाओं को ही उनकी यथा अवस्थिती के गुण, धर्म, प्रभावानुसार सभी योनियों, संस्कृतियों व भाषाओं में अपने-अपने अनुसार भिन्न – भिन्न नामों से जाता रहा है ओर जाना जाता रहेगा । इस घटनाक्रम में प्रथम उत्पत्ति शूक्ष्म जीवाणुओं की हुई है, कालान्तर में इन्हीं शूक्ष्म जीवाणुओं के विकसित स्वरूप ओर उनसे उत्पन्न विकसित जीव ही वर्तमान जीवधारियों के रूप में दृष्ट हैं, जो कि भविष्य में ओर भी परिवर्तित होते रहेंगे । देवी या देवता के रूप में किसी जीव को उसकी विशिष्टता के कारण से अन्य जीवों द्वारा संज्ञा दी गई है ।
जैसे कि गर्भ में पदार्थ (तत्व) के संतुलित स्थूल स्वरूप “अंडाणु” एवं ऊर्जा (शक्ति) के संतुलित स्थूल स्वरूप “शुक्राणु” के संघर्षपूर्ण रासायनिक संयोग से प्रत्येक प्रजाति के जीवों में नए जीव की उत्पत्ति होती है, ओर उस जीव की देह को पुनः रसायनिक क्रियाशीलता के परिणाम स्वरूप मन, प्राण, आत्मा, गुण, धर्म, प्रवृत्ति, वृद्धि एवं विलय आदि की प्राप्ति होती है, ठीक वैसे ही इस सृष्टि का रचना क्रम भी है ।
अन्य योनियों, संस्कृति व भाषाओं में जाने जाने वाले नाम सहित :- जीव, वृक्ष, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, मन, प्राण, आत्मा, गुण, धर्म, प्रवृत्ति, वृद्धि एवं विलय आदि वह सभी कुछ जो गोचर – अगोचर व भासित – अभासित है, वह सब कुछ “ऊर्जा एवं पदार्थ (शक्ति व तत्व)” के रसायनिक संयोग से ही सृजित हुआ है । तथा यह सब सदैव परिवर्तनशील था परिवर्तनशील है, ओर परिवर्तनशील ही रहेगा ।
इस सृष्टि के कुछ विशिष्ट गुणयुक्त भागों को सृष्टि में उत्पन्न जीवों ने अपनी आवश्यकता, हित, मानसिकता, भाषा व संस्कृति के अनुसार नर-मादा, देव-देवी, दैव-अदैव, गुण-अवगुण, पाप-पुण्य, कृत्य-अकृत्य, विष-औषधि, दण्ड-दया, घृणा-प्रेम, अंधकार-प्रकाश आदि श्रेणियों में बांटा है, जबकि यह सब “ऊर्जा व पदार्थ” की रसायनिक अभिक्रिया से हुई उत्पत्ति मात्र है, ओर यह प्रकृति का ही अभिन्न भाग है ।
सभी वसु, दिक्पाल आदि देवी-देवता भी ऐसी ही “प्राकृतिक” घटनाओं से उत्पन्न हुई अवस्थाएं मात्र हैं, जिन अवस्थाओं को उनके अपने गुण, शक्ति, प्रवृत्ति व प्रभाव के अनुसार विभिन्न योनियों द्वारा अपनी अपनी भाषा में विभिन्न नामों व स्वरूपों से जाना जाता है । जो कि मूल ईश्वरीय सत्ता का अंग बनकर इस सृष्टि के नियमन व संचालन में प्रकृति के नियमित “सहयोगी मात्र” तो होते हैं किन्तु ये स्वयं मूल ईश्वरीय सत्ता या “ईश्वर” कदापि नहीं हैं ।
तथा कुछ देवी-देवता जीवों के द्वारा अपनी “कल्पना, मानसिक शक्ति, मन्त्रों व तत्व नियन्त्रण के सिद्धान्तों” के द्वारा अपने भौतिक व निहित स्वार्थों की पूर्ति, जादू, चमत्कार, गौण व निम्न तन्त्र, षट्कर्म आदि की शक्ति प्राप्ति हेतु उत्पन्न किए गए हैं, ओर इनमें भी अधिकतर भटकती हुई प्रेत आत्माओं, भूत, बैताल, यक्ष, अथवा सौरमण्डल में से किसी भी अज्ञात चेतना आदि का शून्य में से आह्वान कर उसको देवी या देवताओं के नाम से नामकरण करके प्रतिष्ठापित कर पूजा जाता है । ऐसे देवी-देवताओं को “लोक देवी या लोक देवता” कहा जाता है । इन लोक देवी-देवताओं से इनके पूजकों व उपासकों को भौतिक व निहित स्वार्थों की पूर्ति, जादू, चमत्कार, गौण व निम्न तन्त्र, षट्कर्म आदि की असीम शक्ति प्राप्त होती है जिसके कारण अज्ञानतावश लोग इनको ही “ईश्वर या भगवान” मानकर पूजते आए हैं । किन्तु ये “लोक देवी-देवता” भी मूल ईश्वरीय सत्ता या “ईश्वर” कदापि नहीं हैं ।
अनन्तकाल से जीवों के द्वारा अपनी “कल्पना, मानसिक शक्ति, मन्त्रों व तत्व नियन्त्रण के सिद्धान्तों” के द्वारा अपने भौतिक व निहित स्वार्थों की पूर्ति, जादू, चमत्कार, गौण व निम्न तन्त्र, षट्कर्म आदि की शक्ति प्राप्ति हेतु उत्पन्न किये गए लोक देवी-देवताओं की पूजा, उपासना ही समाज के मध्य सर्वाधिक प्रचलन में है, जो कि मूल ईश्वरीय सत्ता से बहुत दूर कर्मबन्धनों की अनन्त गहरी अंधेरी खाई में निर्बाध चले जाने का स्वतन्त्र एवं सरल मार्ग मात्र है ।
सृजन, स्थिति व संहार जिसकी प्रवृत्ति हो केवल वह ही “ईश्वर या भगवान” है । तथा यह प्रवृत्ति केवल “ऊर्जा एवं पदार्थ (शक्ति व तत्व)” के संयोजन में ही समाहित है । अतः “ऊर्जा एवं पदार्थ (शक्ति व तत्व)” ही मूल ईश्वरीय सत्ता था, ईश्वरीय सत्ता है ओर वह ही सदैव ईश्वरीय सत्ता रहेगा ।
“ऊर्जा एवं पदार्थ (शक्ति व तत्व)” के इस रहस्यमय सृष्टिचक्र की स्वामिनी स्वयं “ऊर्जा (शक्ति)” ही हैं जो कि पदार्थ रूपी तत्व में स्वयं प्रेरित व संचरित होकर उसको अपनी कल्पना मात्र से क्रियाशील व क्रियान्वित कर सृष्टि के “सृजन, पालन व संहार” की क्रीड़ा किया करती हैं । सनातन संस्कृति में इस योगमाया “ऊर्जा (शक्ति)” को सार्वभौम (पंचतत्व) सिंहासनाधीश्वरी “श्री महात्रिपुरसुन्दरी” एवं सृष्टिचक्र स्वामिनी के नाम से जाना जाता है, व अन्य योनियों व संस्कृतियों में उनकी अपनी भाषानुसार अनेक नामों से जाना जाता है । यही मूल प्रकृति “ऊर्जा (शक्ति)” सत्वगुण – सरस्वती, रजोगुण – लक्ष्मी, तमोगुण – महाकाली व अन्य मिश्रित गुणों से युक्त भासित होने पर अन्य पंचदश महाविद्याओं के रूपों में जानी जाती हैं, जबकि इनका मूल स्वरूप व गुण धर्म ही पदार्थ पर निर्बाध शासन करना है । इनके गुण, धर्म व प्रवृत्तियों से युक्त तत्वों की अवस्थाओं को ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र आदि देवों के नामों से जाना जाता है ।
सृष्टेय सिद्धान्त के अनुसार “पदार्थहीन ऊर्जा” व “ऊर्जाहीन पदार्थ” पूर्णतः निष्प्रभावी होता है । “ऊर्जा को पदार्थ से गुण” व “पदार्थ को ऊर्जा से क्रिया” प्राप्त होती है, जिससे इस सृष्टि का सृजन होकर जीव एवं प्रवृत्तियों आदि की उत्पत्ति होकर इस सृष्टि का सम्पूर्ण क्रम रसायनिक संयोगवश स्वतः संचालित है । तथा जिसके रहस्य ओर उसमें पुनः विलय होने की विद्या को कोई बिरला सिद्ध योगी ही प्राप्त कर पाता है ।
यह सर्वविदित है कि केवल मानव जाती ने अपनी औकात से अधिक ज्ञान, अहंकार व वैमनश्य से ग्रस्त होकर एक ही सृष्टि में अपनी मानसिक अपरिपक्वता से “मानवीय एवं वैश्विक वैमनश्य” के रूप में असंख्य “ईश्वर व भगवान” उत्पन्न कर डाले हैं, यहां तक कि कुछ वैमनश्यप्रिय विद्वानजन तो अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए जीवित या कुछ वर्ष पूर्व तक मृत्यु को प्राप्त हुए मनुष्यों तक को नए भगवान घोषित कर “वैश्विक वैमनश्य” के विस्तार में अपने लिए स्थान बना लेने की प्रतिस्पर्धा में जुटे हुए हैं, ऐसे जीवों का “मानवीय वैमनश्य” विस्तार के अतिरिक्त दूसरा कोई उद्देश्य ही नहीं है । ओर यह नए-नए “ईश्वर व भगवान” उत्पन्न करने की उत्पादन श्रंखला कुछ “बुद्धिजीवी विषाणुओं” के द्वारा निरन्तर अनवरत जारी है !!!
लगे रहो अपने नए – नए भगवान घोषित करके समाज में नैतिक द्वेष, वैमनश्य, द्वंद ओर घृणा का विस्तार करने में ! अन्त में तुम्हारे इस ज्ञान, अहंकार ओर अस्तित्व का विलय तो वहीं होना है जहां सबका होता आया है, जिसे तुम भलीभांति जानते तो हो किन्तु द्वेषवश उसको स्वीकार करने की तुम्हारी सामर्थ्य शेष नहीं रही है । क्योंकि यहां पर सब कुछ पदार्थ पर निर्बाध शासन करने वाली उस महामाया शक्ति के द्वारा ही सृजित होकर “ज्ञान, अहंकार आदि श्रेष्ठ दुर्गुणों” का भरपूर आनन्द भोगकर पुनः उसी में विलय होने के लिए ही तो शेष है !!!
(मथे जाओ अपना माथा । गाए जाओ ज्ञान की गाथा ।)
“ज्ञान” के भस्म होने पर उसकी राख से प्राप्त हुआ शेष “कणमात्र” सत्व ही “विज्ञान” प्राप्त होने की “अंशमात्र” भ्रान्ति होती है ।
विशेष सूचना :- यह लेख केवल मानव योनी की सनातन प्रवृत्ति व संस्कृति की वर्तमान भाषा में लिखा गया है, किसी अन्य योनी की प्रवृत्ति, संस्कृति व भाषा में इसको समझने के लिए उसी योनी में जन्म लेकर इसका ध्यानपूर्वक अध्ययन करें ।
सार्वभौम (तत्व) सिंहासनाधीश्वरी सृष्टिचक्र स्वरूपिणी श्री महात्रिपुरसुन्दरी योगमाया सर्वत्र विजयेते ।
(द्वारा :- श्री नीलकण्ठ गिरी महाराज)
(प्रकृति व देह तन्त्र रहस्य, 120/1 सृष्टि चक्र रहस्य,
दिनांक – 06/09/2001)