मैं अपने चरित्र, व्यवहार एवं मानसिकता द्वारा आंशिक रूप से निवृत्तिमार्गी सन्यासी हूं ! क्योंकि मेरे पास या मेरे नाम से पंजिकृत मेरी अपनी किसी भी प्रकार की कोई चल – अचल सम्पत्ति, मठ या आश्रम नहीं हैं ! किन्तु मैं अपने रहन सहन और वेशभूषा को समृद्ध प्रदर्शित रखता हूं, ताकि गुणी, तपस्वी, निवृत का तिरस्कार ओर अगुणी, भोगी, धनवान का सम्मान करने वाले समाज के मध्य स्वयं को निर्बाध ओर सहज रख सकूं !
भौतिक वस्तुओं के प्रति मेरा आकर्षण शून्य के समान है, किन्तु चार – पांच वर्ष तक पहने जा सकने वाले सस्ते साफ ओर सूती वस्त्र व अन्य संसाधन इस प्रदर्शन में मेरा सहयोग मात्र करते हैं, ओर इन सभी संसाधनों को मैं व्यक्तिगत परिश्रम के उपरान्त ही प्राप्त या प्रयोग करता हूं !
मेरा सन्यास लेने का उद्देश्य यह नहीं था कि मुझे दो रोटी कमाने या खाने की कमी थी, कि जो मैं सन्यास लेने के उपरान्त सन्यास धर्म की मर्यादा का हनन करते हुए भौतिक संसाधनों का संचय कर उनको भोगने व संवारने में अपनी उर्जा, मानसिकता व अन्यों की भावनाओं का व्यय व दुरूपयोग कर स्वयं अपनी ही दुर्गति करूं ! मेरा सन्यास लेने का उद्देश्य मेरी अपनी आध्यात्मिक उन्नति ओर निवृत्तिमार्ग के अन्तिम पड़ाव को पार करना है, और मेरे लिए यही सर्वोपरि है !
मैंने अपने जीवन को तप ओर साधनाओं में जिया है ! और मेरे साधनात्मक जीवनकाल में अनेक अवसर ऐसे आये हैं जब मैंने कई कई दिनों तक केवल जल पीकर या बुरांस के पवित्र पुष्प खाकर और कभी किसी परिचित वनस्पति को खाकर भूख को शान्त किया है ! लक्ष्मणझूला से डेढ़ किमी ऊपर जंगल में स्थित गणेश गुफा व मणिकूट पर्वत के शिखर पर स्थित सिद्धों के कोट में निवास के समय मैंने 1996 से 2007 के मध्य दीर्घकाल तक आटे की बराबर मात्र में भस्म मिलाकर रोटी बनाकर खाई है, ताकि वह आटा अधिक दिनों तक क्षुधा शान्त करने में सहयोग कर सके ! किन्तु इस पवित्र देवभूमि उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा, पौड़ी, चमोली, रुद्रप्रयाग व उत्तरकाशी जनपदों के दूरस्थ क्षेत्रों में मेरी असंख्य मांएं हैं जिन्होंने उनके क्षेत्र में मेरी अल्प या दीर्घकालिक साधनाओं के साधनाकाल में मुझे अपने घर से भोजन लाकर भोजन कराया है !
2007 के बाद से मेरे जीवन में परिवर्तन हुए हैं, तब से मेरा स्थाई निवास है, जिसमें मैं सम्भवतः आजीवन निवास कर सकता हूं ! मैं जिस स्थान पर निवास करता हूं वह भूमि ग्राम तोली नीलकंठ निवासी श्री राजेन्द्र सिंह चौहान जी व उनके पिताजी श्री बलबीर सिंह चौहान जी के द्वारा मुझे केवल आजीवन निवास करने हेतु दी गई है, न कि देहावसान के उपरान्त अपने साथ स्वर्ग या नरक ले जाने के लिए !
मेरे निवास की इस भूमि पर मेरे व आगन्तुक सज्जनों के साधना, स्वाध्याय, विश्राम व भोजन करने हेतु एक साधनाकक्ष, एक धूनीगृह जिसमें कि मैं व पांच – छः अन्य सज्जन विश्राम कर सकते हैं, एक भण्डारगृह (रसोई) व एक शौचालय सहित स्नानगृह निर्मित है ! इतना विस्तृत और समृद्ध है मेरा तथाकल्पित “मठ” !
वैसे मेरी आन्तरिक समृद्धि की कोई सीमा नहीं है, क्योंकि मेरे निवास में “विशुद्ध अष्टधातु से सृजित विश्व के सबसे बड़े ऊर्ध्वपृष्ठीय पुष्ट श्रीयन्त्र” के रूप में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड नायिका ही विराजमान हैं, और मेरी आन्तरिक समृद्धि भौतिक “दीमकों” से पुर्णतः सुरक्षित है !
इस संसार में बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास उनके कर्मबंधनों या अन्य कारणों से रहने के लिए स्थान व छत नहीं है, मेरे पास रहने का स्थान व छत होने के कारण ऐसे लोगों से तो अपने कर्मबंधनों या अन्य कारणों से मैं समृद्ध ही हूं ! और अपनी इस समृद्धि को मैं उन लोगों पर व्यय करने के प्रयत्न में रहता हूं जो इतने से भी वंचित हैं !
मेरी मूल “सम्पत्ति” मेरे गुरु द्वारा मुझे दिए गए साधनात्मक शिक्षा, संस्कार और मेरे आध्यात्मिक जीवन के लिए आवश्यक व मुझे कर्मबंधनों से निवृत्त बनाए रखने वाले मेरे सिद्धान्त हैं, जो कि मेरे द्वारा केवल मुझपर ही प्रभावी होते हैं ! मेरे आध्यात्मिक जीवन, निवृत्तिमार्ग व सिद्धान्तों में किसी भी अन्य व्यक्ति द्वारा किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप मुझे स्वीकार नहीं है, यह मेरा “वैभव” है !