मेरे सामाजिक कर्तव्य ओर उनका निर्वहन !

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

मेरे साधनात्मक जीवन के अनुभवों ओर मेरे गुरुजनों के द्वारा मुझे दी गई शिक्षाओं तथा मेरे पुर्वाश्रम की गौचर परिस्थितियों का शूक्ष्मता पूर्वक अवलोकन व अध्ययन करने से यह सुनिश्चित हुआ कि इस कर्म प्रधान श्रृष्टि में प्रत्येक जीव अपने पूर्व के कर्मबंधनों को भोगने के निमित्त ही जन्म लेता है ! ओर जन्म लेने के उपरान्त प्रत्येक जीव अपने पूर्व के कर्मबंधनों के परिणाम स्वरूप “सुख या कष्ट” को भोगने के साथ-साथ कृत्य – अकृत्य एवं उनके दूरगामी परिणामों पर विचार किए बिना भविष्य के लिए नए कर्मों को भी करते हुए उन कर्मों को भविष्य में भोगने के लिए सन्चित करता रहता है ! इन कर्मों के परिणाम स्वरूप भविष्य में पुनः उस जीव को “सुख या कष्ट” के रूप में ही भोगना होता है !

प्रत्येक जीव दुःख, रोग, कष्ट, दरिद्रता आदि आने पर ईश्वरीय सत्ता से निकटता व सुख प्राप्त करने की कामनाएं व कर्म करके सुख, समृद्धि की प्राप्ति कराने वाले कर्मों को करता है तो वह जीव सुखी व समृद्ध होने पर ईश्वरीय व नैतिकता की समस्त सीमाओं का अतिक्रमण करके दुःख, रोग, कष्ट, दरिद्रता आदि की प्राप्ति कराने वाले कर्मों को करता है ! इसी प्रकार यह श्रृष्टि चक्र निरन्तर गतिशील है !

किन्तु प्रकृति ने प्रत्येक जीव को स्थिरतापूर्वक योग, तप, रोग, कष्ट आदि के द्वारा उसके पूर्व के कर्मबंधनों को भोगते हुए भविष्य में भुक्त होने योग्य कोई भी कर्म सन्चित नहीं करने का स्वतन्त्र विकल्प प्रदान किया हुआ है ! कुछ श्रेष्ठ सिद्ध साधक प्रकृति द्वारा प्रदत्त इस विकल्प को ग्रहण कर कर्मबंधनों से विमुक्त होकर “सुख, दुःख, जन्म, मृत्यु” के चक्र से महाप्रलय के उपरान्त इस श्रृष्टि की पुनः रचना होने तक निवृत्ति को प्राप्त कर लेते हैं !