आचार्यों पुरोहितों से एक हमारा एक आग्रह !

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

यह आदेश नहीं, एक आग्रह है अपनी संस्कृति में बढती हुई विकृतियों का निरोधन करने के लिए ! हम आपसे संस्कृति व पद्धति में संक्रमण/अतिक्रमण की अपेक्षा नहीं करते हैं, बल्कि संरक्षण में सहयोग की अपेक्षा करते हैं !

1 :- दूरभाष या वीडियो कॉल के माध्यम से कर्मकाण्ड की प्रक्रियाएं संपन्न कराने का अर्थ होगा कि अब कुछ भी दूर से संपन्न कराया जा सकता है ! जैसे कि आजकल बड़े गुरुओं द्वारा योग ओर अन्य साधनाओं के लिए ऑनलाईन शिक्षा – दिक्षा पहले से धर्म के बाजार में उपलब्ध है ! फिर आप जैसे समाज के निकट व्यक्ति की ऐसी सलाह भविष्य में विस्तृत ओर विकृत रूप धारण कर सकती है !

2 :- दूसरा यह कि अनेक विप्रजन जो हमारे सम्पर्क में हैं या जो हमारे शिष्य हैं हम स्वयं उनको यह निर्देश देते हैं कि जिस कर्म का जो विधान है उसको निष्ठापूर्वक उसी विधान से ही क्रियान्वित करने के अतिरिक्त अनावश्यक संक्रमण/अतिक्रमण नहीं करना चाहिए, ओर यदि कोई यजमान तुमको कार्य शीघ्र सम्पन्न कराने का आग्रह करे तो ऐसे यजमान को आदर पूर्वक “तुमको जैसा स्वांग रचना है वैसा स्वांग स्वयं ही रच लो” कह कर वहां से चले जाना चाहिए ! उस कार्य को उसकी पूरी पद्धति से विधिवत् सम्पन्न करने स्थान पर उस कर्म कि मर्यादा के साथ साथ अपनी विद्या ओर अपने स्वाभिमान को दक्षिणा के बदले में कभी मत बेच देना !

जिस कर्म कि जैसी पद्धति है वैसा ही सम्पन्न करना सुनिश्चित करना चाहिए, अन्यथा “परिणाम का निदान” उस यजमान की धनाढ्यता, समझदारी या विवशता ओर स्वाभिमान बेचने के बदले में मिली उस दक्षिणा से सम्भव नहीं होगा !

इसका अर्थ तो यह होगा कि ब्राह्मण एक मजदूर है उससे जैसे चाहो वैसे कार्य सम्पन्न कराकर दिहाड़ी देकर विदा करो !

यदि ब्राह्मण स्वयं ही प्राचीन विधि, विधान, पद्धतियों, आचरण व संस्कारों के संरक्षण के स्थान पर देश, काल, समय, परिस्थिति, आधुनिकता व तकनीकी के नाम पर ऐसे समझौते करते ही रहेंगे तो प्राचीन पद्धतियों के साथ साथ इस पूरी संस्कृति का भी अस्त हो जाना ही तय है ! क्योंकि अभी तो वैसे भी थोड़ा सा ही बचा है, फिर उतना भी नहीं रहेगा !

धर्म संस्कृति की रक्षा स्वयं के चेतन व कर्तव्यपरायण बने रहने से ही सम्भव है ।
नीति एवं विधि के अनुसार दृढतापूर्वक आचरण करने से अभीष्ट कार्य, अनुष्ठान की सिद्धि, सम्मान, समृद्धि व प्रतिष्ठा तो स्वयं ही हाथ जोड़कर चली आती है ।
तथा विधि को तटस्थ कर देने से कार्य, अनुष्ठान निश्चित ही स्वतः नष्ट हो जाते हैं जिससे समृद्धि प्रभावित होती है ।

विकृत अथवा विधिविरूद्ध किये जाने वाले कार्य से कहीं उत्तम है कि उस कार्य को ही न किया जाए !

इसपर आप क्या समझेंगे यह आपका अपना विषय है !