हे त्रिपुरेश्वरी परमेश्वरी ! जब कहीं पर तू देव संस्कृति के अनुसार अनेक भारतीय परिधानों, अलंकार व श्रंगार से सुशोभित हो दृष्टिगोचर होती है ! तब अनायास ही अपनी दृष्टि को पृथ्वी पर स्थिर कर तुझे प्रणाम करने की व्याकुलता से युक्त तृष्णा सी उत्पन्न होती है !
मैं तेरे ऐसे दिव्य स्वरूप को “मां व पुत्री” के रूप में नित्य सम्मानपूर्वक हृदय से प्रणाम करता हुं !!
किन्तु हे परमाम्बिके ! जब कहीं पर तू पाश्चात्य संस्कृति के अनुसार अर्ध वा न्यून परिधानों से युक्त होकर दृष्टिगोचर होती है ! तब अनायास ही भय, क्रोध व ग्लानी की उत्पत्ति होकर ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई डाकिनी, पिशाचिनी दृष्टिगोचर हो गई हो !
हे अनन्तरूपा योगमाया ! कोई साधु, सज्जन तेरे जिस स्वरूप को देखकर भावविह्वल होकर तुझे हृदय से “प्रणाम मां” या “सौभाग्यवती रहो बेटी” कहने की क्षमता ही हार जाए, ऐसा आवरण तू धारण ही क्यों करती है ? मैं तो तेरे ऐसे भयावह स्वरूप को कभी भी सम्मान न दे सकूंगा, कदापि नहीं योगमाया !!!
अतः हे शोड़षात्मिका परमेश्वरी ! मैं केवल तेरे सौम्य सुन्दर स्वरूप के “मां व पुत्री” के रूप में ही दर्शन कर प्रणाम करूं ऐसा मेरा सौभाग्य हो !!
जय त्रिपुरेश्वरी मम आत्मचक्र संचारिणी ।
द्वारा :- श्री नीलकण्ठ गिरी महाराज
(प्रकृति व देह तन्त्र रहस्य, 106/5 श्यामा रहस्य, 04/09/2008)