हमारे देश में अनेक “धार्मिक एवं आध्यात्मिक” महत्त्व के स्थान हैं सन्मार्गी साधू, सन्यासी, योगी, तपस्वी, साधक जन उन स्थानों पर आध्यात्मिक साधनाएं, सिद्धियां, पूजाएं एवं परिक्रमा आदि अलौकिक शक्तियों के संग्रह करने तथा परमात्मा प्राप्ति के लिए करते हैं, योगीजन उन स्थानों पर साधनाएं, सिद्धियां, पूजाएं एवं परिक्रमा आदि योगसिद्धि प्राप्ति हेतु, तान्त्रिक जन तन्त्र सिद्धि हेतु तथा कुछ सज्जन उन स्थानों में आदिकाल से गुप्त रूप से निवास करने वाले सिद्ध योगियों के दुर्लभ दर्शन प्राप्त करने हेतु उन स्थानों पर पूजाएं एवं परिक्रमा आदि करते हैं ओर गृहस्थ श्रद्धालु उन स्थानों पर पूजाएं एवं परिक्रमा आदि विभिन्न सांसारिक लाभ की कामना से तपश्चर्यापूर्वक सम्पन्न करते रहे हैं । अधिकांश श्रद्धालु पारिवारिक सुख, पुत्र प्राप्ति, धन सम्पदा प्राप्त करने की कमाना से करते रहे हैं ।
उन स्थानों पर साधनात्मक प्रक्रियाओं को कठिन अनुभव करने के कारण आम सामान्य लोगों ने धीरे-धीरे उन स्थानों एवं प्रक्रियाओं को त्याग ही दिया था, किन्तु उन स्थानों के आध्यात्मिक महत्त्व के मर्म को जानने वाले साधू, सन्यासियों, योगी, तपस्वियों द्वारा उन स्थानों पर पूर्ववत् ही पूर्ण नियमबद्धता पूर्वक आध्यात्मिक व साधनात्मक प्रक्रियाएं सम्पन्न की जाती रही हैं । वहीं पूर्व के कुछ वर्षों से मनमुखी प्रवृत्ति के कुछ स्वेच्छाचारी लोगों ने आध्यात्मिक व साधनात्मक प्रक्रियाओं को उन स्थानों के मूल नियम के पुर्णतः विरुद्ध वाहन, वाद्ययंत्रों, भण्डारे आदि विविध प्रकार की विकृतियों व आड़म्बरों से सुसज्जित कर सामूहिक रूप से पुनः सन्चालित करके उन स्थानों को भी लोकदिखावे (मनोरंजन) का रूप देकर विकृति व आड़म्बर मिश्रित कर ही दिया है, जिससे वह आध्यात्मिक व साधनात्मक प्रक्रियाएं आम जनमानस के लिए पुनर्जीवित तो अवश्य हो गयी है, किन्तु वह आध्यात्मिक व साधनात्मक प्रक्रियाएं उनमें मिश्रित की गई विकृतियों व आड़म्बर युक्त लोकदिखावे (मनोरंजन) से अपना वास्तविक स्वरूप सदैव के लिए खो देंगी, और इसका परिणाम भी संभवतः वही होगा जो मूल सिद्धांतों के विपरीत मनमुखी आचरण से सदैव ही होता आया है ।
ऐसे महत्वपूर्ण आध्यात्मिक एवं धार्मिक महत्त्व के स्थानों पर आध्यात्मिक साधनाएं, सिद्धियां, पूजाएं एवं परिक्रमा आदि को वाद्ययन्त्रों, भण्डारों, वाहन आदि से सुसज्जित करके उन आध्यात्मिक व साधनात्मक प्रक्रियाओं के आध्यात्मिक स्वरूप को तो ध्वस्त किया ही जा रहा है, इसके साथ ही नियमबद्ध प्रक्रियाएं सम्पन्न करने वाले सज्जनों के लिए भी गीत, संगीत, नृत्य के हुड़दंग द्वारा व्यवधान उत्पन्न किए जाने की व्यवस्थाएं भी निरन्तर विकसित होती जा रही हैं । केवल इतना ही नहीं प्रत्येक “धार्मिक एवं आध्यात्मिक” महत्त्व के स्थानों में “पर्यटन एवं रोजगार” के अवसर ढूंढ़कर “धार्मिक एवं आध्यात्मिक” महत्त्व के स्थानों के मूल स्वरूप को ध्वस्त कर उन्हें व्यापारिक प्रतिष्ठानों के रूप में परिवर्तित करने की नीयति रखने वाले कुछ व्यापारी सज्जनों एवं संगठनों द्वारा उन पौराणिक “धार्मिक एवं आध्यात्मिक” महत्त्व के स्थानों को पर्यटन व रोजगार के रूप में विकसित कर उनके शेष बचे हुए आध्यात्मिक स्वरूप का भी बंटाधार करना सुनिश्चित करने का प्रयास किया जा रहा है, फिर वह आध्यात्मिक व साधनात्मक प्रक्रियाएं आध्यात्मिक यात्राएं कहां से रह जाएगी ? फिर तो वह “केवल मेला बन कर रह जायेंगे केवल मेला”, ओर उनका धार्मिक व आध्यात्मिक स्वरूप भी केवल कुछेक सांस्कृतिक जानकार ग्रन्थकारों के ग्रन्थ, उपन्यासों में ही अत्यन्त रोचक व रोमांचक स्वरूप में लिखा हुआ शेष ही अध्ययन करने को मिलेगा ।
अतः प्रबुद्धजन उन सभी पौराणिक “धार्मिक एवं आध्यात्मिक” महत्त्व के स्थानों को सन्मार्गी साधू, सन्यासी, योगी, तपस्वी, साधकों ओर आस्थावान धर्मावलम्बी सद्गृहस्थों के लिए “धार्मिक एवं आध्यात्मिक” महत्त्व के स्थानों के रूप में ही संरक्षित व सुरक्षित रहने दें, इसमें विकृति व आड़म्बर मिश्रित न करें तो भविष्य ओर आने वाली पीढ़ियों के लिए उचित रहेगा । पर्यटन एवं रोजगार की संभावनाओं के लिए ओर भी बहुत सारे विकल्प हैं, पर्यटन एवं रोजगार के लिए उन अन्य विकल्पों की सम्भावनाओं पर भी विचार कर लेना चाहिए ! केवल धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्त्व के स्थानों को ही पर्यटन एवं रोजगार की संभावनाओं के रूप में देखने की नीयति से बाहर निकलना चाहिए ! अन्यथा आने वाले समय में शेष बची हुई धार्मिक एवं आध्यात्मिक पहचान पूर्ण रूप से नष्ट होकर केवल पर्यटन एवं रोजगार ही शेष बचेगा, किन्तु धार्मिक एवं आध्यात्मिक पहचान को पर्यटन एवं रोजगार की भेंट चढ़ा देने वालों का पेट फिर भी नहीं भर सकेगा ! इसलिए उन सभी “धार्मिक एवं आध्यात्मिक” महत्त्व के स्थानों पर आध्यात्मिक साधनाएं, सिद्धियां, पूजाएं एवं परिक्रमा आदि सहित सभी धार्मिक एवं आध्यात्मिक पहचान वाले स्थानों का पर्यटन एवं रोजगार के लिए “दोहन” नहीं बल्कि धार्मिक एवं आध्यात्मिक पहचान के रूप में ही “संरक्षण” करना सर्वोत्कृष्ट रहेगा ।