मान्यताओं एवं परम्पराओं का तो जन्म ही ध्वस्त होने के लिए होता है, ताकि पुरानी मान्यताओं एवं परम्पराओं की विसंगतियों का शोधन कर भविष्य में पुनः ध्वस्त करने के लिए नवीन मान्यताओं एवं परम्पराओं का निर्माण किया जा सके ।
इस श्रृष्टि में प्रत्येक सभ्यता की उत्थानपरक समस्त पद्धतियों की मूल प्रणाली इसी सिद्धान्त पर कार्य करते हुए ही अपने अनन्त सोपानों की रचना करती है ।
अतः उन्नति के उद्देश्य के मूल्य पर किसी भी मान्यता अथवा परम्परा को यथावत् नहीं रखा जा सकता है, उसमें अनुसंधान एवं संशोधन ही अनिवार्य हैं ।
तुम जिसको पैसा समझते हो वह एक मान्यता है अगर किसी दिन सरकार बदल जाए और रातोंरात यह एलान किया जाए कि फलाँ-फलाँ नोट नहीं चलेगा तो तुम क्या करोगे ?
मान्यता को बदलने में देर कितनी लगती है ?
चंद कागज के टुकड़ों पर किसी का चित्र और हस्ताक्षर करने से वह मुद्रा बन गई और व्यवहारिक काम में आने लगी ।
अब मान्यता बदल गई तो वह मुद्रा दो कौड़ी की हो जाएगी ।
सारा खेल मान्यता का है।
जड़ वस्तुऐं मूल्यहीन हैं, महज एक मान्यता है जिसने उन्हें मूल्यवान बना दिया है ! स्वर्ण रजत हीरे मुद्रा इनका मूल्य महज मान्यता का आरोपण है। जिस दिन तुम जगत की मान्यताओं से मुक्त हो गये उस दिन सब मिट्टी हो जाएगा उस दिन तुम चेतना को उपलब्ध होगे जो अनमोल है!