मन्दिर को भी दुकान समझते हैं !

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

उसने एक पांच सौ रूपये का नोट अपनी जेब से निकालकर मुट्ठी में छुपाकर हमारी ओर बढ़ाते हुए कहा कि मैं मन्दिर में दर्शन करने आया हूं, आप मुझे किसी अन्य मार्ग से दर्शन करा दीजिए !

क्योंकि उस दिन मन्दिर में दर्शनार्थियों की बहुत भीड़ थी, तपतपाती हुई धूप में दर्शनार्थियों की एक किलोमीटर लम्बी पंक्ति लगी हुई थी । ओर वह व्यक्ति सामाजिक, नैतिक व मानवीय मर्यादाओं को रौंदकर धन का लालच (रिश्वत) देकर धूप में लगी हुई उस पंक्ति में खड़े हुए बिना किसी पिछले दरवाजे से मन्दिर के गर्भगृह में प्रवेश करना चाहता था ।

हमने उससे कहा कि यदि वह हमारे लिए मानव न्यायाधीश ओर वकील तक का पूरा व्यय वहन कर ले, ओर भगवान के पास जाकर कुछ रूपये उस सर्वौच्च न्यायाधीश भगवान को देकर हत्या के अपराध से हमें बरी भी करवा ले तो हम उसे दस मिनट में मन्दिर क्या सीधे भगवान के सामने ही पहुंचा देंगे ! तो उसने हमारे आग्रह को नकार दिया, क्योंकि उसको “भगवान” के नहीं भगवान के मन्दिर के “रिश्वत” देकर दर्शन करने थे । ऐसे पैसे वाले लोग मन्दिरों तक छल, कपट, रिश्वत, बेईमानी से नहीं चूकते ।

किन्तु उस पढ़े लिखे सभ्य मनुष्य जैसा दिखने वाले “दो कौड़ी की औकात के गंवार पशु” के हाथ में वो पांच सौ रूपये का नोट देखकर हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा था, कि धन कमाना तो केवल मनुष्य योनी का स्वभाव था, अब अन्य पशु भी रूपये कमाकर मन्दिरों में आने लगे हैं ।

(वैसे मैं ऐसे लोगों को पैसे का व्यापार करने वाली वैश्या कहता हूं । क्योंकि एक वैश्या तो केवल धन के बदले अपनी देह बेचती है, जबकि ऐसे लोग नीती, न्याय, धर्म, मानवता के बदले में अपना पैसा बेचते हैं ।)