मानव प्रवृत्ति ओर मानवीय और स्वार्थ !

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

मां पिता कहते हैं मेरे लाल हमें अकेले छोड़ गया ।
भाई बहन कहते हैं मेरे भाई हमें अकेले छोड़ गया ।
पत्नी कहती है मुझे अकेली छोड़ गया ।
सन्तान कहती है हमें अनाथ छोड़ गया ।

अरे ? यहां सब को मात्र अपनी चिन्ता है, यहां सब सम्बन्ध की आड़ में एक दूसरे को भोगने की प्रवृत्ति में आबद्ध हैं, उस चले जाने वाले के दुःख की किसी को भी चिन्ता नहीं है, कि वो बेचारा कितने जीवों की महत्वाकांक्षाओं का बोझ ढोते ढोते गया है !

उसे अपने लिए भी तो अपना जीवन जी लेने देते ।

ओर विशेष बात यह भी है कि यह अतिशय घटिया प्रवृत्ति केवल अपने आप को अपनी औकात से अधिक श्रेष्ठ बताने वाली पशुओं की एक विशेष प्रजाति “मनुष्य” प्रजाति में ही पाई जाती है, अन्य किसी भी प्रजाति में यह महादोष नहीं पाया जाता है ओर वह सभी मनुष्य की अपेक्षा शतप्रतिशत प्रकृति के नियमों के अनुकूल आचरण करते हैं व मनुष्य की अपेक्षा शतप्रतिशत सुखी रहते हैं ।