श्री कामाक्षी महाविद्या का मूल स्वरूप और साधना विधान क्या है ?

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

भगवती कामाक्षी मूलप्रकृति शक्ति की सुन्दर सौम्य कुमारी स्वरूप श्री विग्रह वाली देवी हैं । उदय कालीन सूर्य के समान जिनकी कान्ति है, दशभुजी, त्रिनेत्री, पाश, अंकुश, शूल, धनुष, बाण, पद्म, तर्जनी, वर, अभय व पानपात्र की मुद्रा तथा मस्तक पर सृष्टि चक्र (लिंग व योनि) को धारण किये हुए हैं । ये भगवती सहज व शांत मुद्रा में षोडशदल पद्म के सिंहासन पर काम “क”कार की मुद्रा में विराजमान होती हैं ।

भगवती कामाक्षी श्यामा और अरूण वर्ण के भेद से दो कही गयी है प्रथम श्यामा रूप में श्री कामाक्षी कहलाती हैं तथा द्वितीय अरूण वर्णा श्री उन्मत्तभैरवी कहलाती हैं ।

ये शक्ति मदयुक्त षोडश कलाओं से सम्पन्न हैं, इसलिए ये कामाक्षी कहलाती हैं ।

इनकी साधना (अर्थात जप, तप, आत्मसंधान, यज्ञ आदि के द्वारा परा या अपरा अवस्था में स्वयं को इनकी शक्ति में अथवा इनकी शक्ति को स्वयं में विलय करने की प्रक्रिया) प्रमुख रूप में इस प्रकार से की जाती है :-

महाविद्या साधना विधान :- कामाक्षी महाविद्या के रूप में एकाक्षरी, त्र्याक्षरी, पंचाक्षरी आदि मन्त्रों से इनकी साधना की जाती है, महाविद्या रूप में इनकी साधना को संपन्न करने से इस साधना के परिणाम स्वरूप भगवती कामाक्षी अपने महाविद्या साधक के जीवन को समस्त प्रकार के केवल भौतिक सुख, यश, ऐश्वर्य, कीर्ति, धन, धान्य, समृद्धि रत्न, पुत्र आदि सर्वैश्वर्यों से सम्पन्न कर देती हैं, व इनकी साधना वाह्यान्तर आनन्द से परिपूर्ण होती है !

महाविद्या के रूप में इनकी साधना करने से केवल भौतिक सम्पन्नता की ही प्राप्ति होती है, जिस सम्पन्नता के मद में स्वार्थवश जीव अपनी मानवीय, धार्मिक, नैतिक व न्यायिक सीमाओं का अतिक्रमण करने से तनिक भी नहीं चूकता है ! अतः इस प्रकार से की जाने वाली साधना पुर्णतः भौतिक साधना होती है, जिसमें धर्म व आध्यात्म की उपस्थिति व लाभ अनिवार्य नहीं होता है, साधक स्वयं के प्रयास से स्वयं को मानवीय, धार्मिक, नैतिक व न्यायिक सीमाओं का अतिक्रमण करने से रोक कर आध्यात्मिक बना रह सकता है !

इनकी उपासना (अर्थात विभिन्न प्रकार से पूजा, पाठ, अर्चना, यज्ञ, स्तोत्र, भक्ति, आदि के द्वारा इनको परा अवस्था में प्रसन्न (सिद्ध) कर मनोरथ सिद्ध करना, अथवा परा या अपरा अवस्था में स्वयं को इनकी शक्ति में अथवा इनकी शक्ति को स्वयं में विलय करने की प्रक्रिया) “महाविद्या” व “श्रीविद्या” दोनों ही विधान में दीक्षित हुए साधकों द्वारा कौलाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, समयाचार आदि विधियों से श्रीचक्र (श्री यन्त्र), नव योनी चक्र या कामाख्या चक्र के केंद्र में कौमारी स्वरुप में की जाती है, व इनकी उपासना वाह्यान्तर आनन्द से परिपूर्ण होती है ।