मैंने अपने मार्गदर्शक व प्रेरक श्री भगवान गिरी जी महाराज के निर्देश पर परम तपस्वी स्वामी श्री हनुमान गिरी जी महाराज (हनुमानचट्टी बद्रीनाथ), परम तपस्वी स्वामी श्री प्रवृज्यानंद जी महाराज (सतोपंथ, बद्रीनाथ), स्वामी श्री चन्द्र गिरी जी महाराज (केदारनाथ), इस लोक में मृतसंजीवनी विद्या के अद्वितीय प्रकाण्ड ज्ञाता परम तपस्वी स्वामी श्री मंगलानन्द सरस्वती जी महाराज “त्रिजटा” (भैरव गुफा, नैनबाग), परम तपस्वी सिद्धयोगी स्वामी श्री प्रकाश पुरी जी महाराज (गुडगाँव), टिहरी गढ़वाल नरेश की आराध्या कुलदेवी भगवती राजराजेश्वरी व सत्यनाथ भैरव के दत्तात्रेय परम्परा में श्रीविद्या उपासक सिद्धयोगी श्री शीलनाथ जी, श्री बसन्त नाथ जी एवं श्री बुद्धि नाथ जी महाराज (देवलगढ़, श्रीनगर गढ़वाल), ह्यग्रीव सम्प्रदाय की “देव्यौध कपिलनाथी परम्परा” में कालीकुल में श्रीविद्या उपासक परम तपस्वी सिद्धयोगी श्री निश्चलानन्द नाथ जी महाराज (तपोवन, गौमुख) आदि हिमालय के स्थाई तपस्वी दिव्य सिद्ध महापुरुषों से सम्पूर्ण उत्तराखण्ड हिमालय में वर्षों तक भटकते हुए अनेक साधनाएं व शिक्षा दीक्षाएं ग्रहण कर साधनाएं संपन्न कर अनेक सिद्धियां तो अवश्य प्राप्त की थीं, किन्तु निवृत्तिमार्ग में सफलता हेतु मेरे मूल लक्ष्य आध्यात्म विज्ञान के सर्वोच्च सूत्र “गुप्तगायत्री, श्रीविद्या एवं ब्रह्मविद्या” को प्राप्त करने की तृष्णा शान्त नहीं थी, और इस संसार में गुप्तगायत्री साधना विधान के एकमात्र जीवित विशेषज्ञ सिद्ध योगीश्वर श्री श्री १००८ स्वामी श्री कैवल्यानन्द गिरी जी महाराज श्री के सम्मुख मैं अपनी योग्यता व पात्रता को प्रदर्शित करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहा था !
अंततः विजयदशमी 1995 को वह दिन आ ही गया जिसके लिए मैं वर्षों से हिमालय में भटकता रहता था, सन 1995 के शारदीय नवरात्र की नवमी को मैं प्रत्येक वर्ष की भांति बद्रीनाथ में माणा के पास वसुधारा पर यज्ञ कर रहा था, तभी पूर्णाहुति के समय अकस्मात् ही सिद्ध योगीश्वर स्वामी श्री कैवल्यानन्द गिरी जी महाराज वहां आए और मुझे अपने साथ सतोपन्थ में स्थित अपनी गुफा में अपने साथ ले गए और स्वतः ही मुझे परम गोपनीय “गुप्तगायत्री विद्या” की दीक्षा प्रदान करने की अनुमति प्रदान कर दी ! तब मैंने इसके अगले दिन विजयदशमी को ह्यग्रीव सम्प्रदाय की “देव्यौध कपिलनाथी परम्परा” में श्रीविद्या एवं ब्रह्मविद्या की मूल जननी गुप्तगायत्री के माध्यम से श्रीविद्या के चारों कुलों श्रीकुल (हादी), काली कुल (कादी), त्रिपुराकुल (सादी) व ताराकुल को पूर्ण रूप से सिद्ध करने वाले भूमण्डल पर एकमात्र शेष परम उपासक परम तपस्वी सिद्ध योगीश्वर श्री श्री १००८ स्वामी श्री कैवल्यानन्द गिरी जी महाराज “कौलिक” (सतोपंथ, बद्रीनाथ) जी से “श्रीविद्या के चारों कुल व चारों कुलों की षोडश महाविद्याओं तथा ब्रहमविद्या” की मूल जननी गुप्तगायत्री की दीक्षा को प्राप्त कर आध्यात्म विज्ञान के सर्वोच्च सूत्र को प्राप्त किया, और स्वामी श्री कैवल्यानन्द गिरी जी महाराज श्री की आज्ञा से वसुधारा (माणा, बद्रीनाथ) के सम्मुख श्रीकुण्ड के निकट तीन बड़े शिलाखंडों से निर्मित एक गुफा में रहकर श्रीविद्या व ब्रह्मविद्या के मूल स्रोत्र “गुप्तगायत्री” की साधना को संपन्न कर गुप्तगायत्री से सृजित हुई श्रीविद्या के श्रीकुल (हादी विद्या) में विधिवत् प्रवेश किया |
किन्तु इसी मध्य मेरे मुख्य मार्गदर्शक व प्रेरक सिद्ध योगी श्री भगवान गिरी जी महाराज का महानिर्वाण हो जाने के उपरान्त मैंने आगे की शेष बची आध्यात्मिक व साधनात्मक यात्रा के लिए अल्पायु में ही गृहत्याग कर दिया व इसके बाद मैं कभी घर लौट कर नहीं गया और न ही घर से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध रखा | मैंने फाल्गुन महाशिवरात्रि 1996 के दिन श्री नीलकंठ महादेव स्थित सिद्ध बाबा के मन्दिर में स्वामी श्री प्रीतम गिरी जी महाराज की कृपा से सन्यास जीवन का प्रारम्भ किया ओर स्वामी श्री प्रीतम गिरी जी महाराज के सानिध्य में मानव सेवा करते हुए दो वर्ष तक सन्यास की शिक्षाएं व पंकजा नदी के उत्तरमुखी संगम पर गुप्तगायत्री से सृजित श्रीविद्या के श्रीकुल (हादी विद्या) की साधना को संपन्न कर श्रीविद्या के काली कुल (कादी विद्या) में विधिवत् प्रवेश किया था !
अब वर्तमान में मैं श्रीविद्या के तीन कुलों श्रीकुल (हादी विद्या), काली कुल (कादी विद्या) व त्रिपुराकुल (सादी विद्या) की साधना को संपन्न कर श्रीविद्या के चतुर्थ कुल ताराकुल (वादी विद्या) में विधिवत् प्रवेश कर साधनारत हूं !
मेरे वर्तमान जीवन का यह अतिरोमांचक पड़ाव है, क्योंकि यदि मैं श्रीविद्या के चतुर्थ कुल ताराकुल (वादी विद्या) की साधना में सफल हो गया तो “द्वापरयुग” के बाद एक नया अध्याय बन जाऊंगा, क्योंकि श्रीविद्या के चारों कुलों के सम्पूर्ण क्रम को अभी तक केवल शिव, मनु, चन्द्र, कुबेर, ह्यग्रीव, लोपामुद्रा, मन्मथ, अगस्त, स्कन्द, दुर्वासा, कामराज, श्री गुरु कपिल मुनि, नन्दिकेश्वर व आनंदभैरव ही पूर्ण कर पाए हैं, जिनमें से महर्षि अगस्त की धर्मपत्नी लोपामुद्रा ने इन सबके अन्त में द्वापरयुग में श्रीविद्या के चारों कुलों के सम्पूर्ण क्रम को सम्पन्न किया था, और उनके नाम से ही श्रीविद्या का एक सम्प्रदाय “लोपामुद्रा सम्प्रदाय” सृजित हुआ था जो कि वर्तमान में लुप्त हो चुका है, और इस सम्प्रदाय की पद्धति से वर्तमान में केवल श्रीयन्त्र एवं महाविद्या पूजन की परम्परा ही उत्तराखण्ड के उत्तरपूर्वी क्षेत्र में शेष बची रह गई है, जबकि इस सम्प्रदाय से “श्रीविद्या साधना – उपासना व महाविद्या साधना” पूर्ण रूप से लुप्त हो चुकी है ! और मैं इस साधना में विफल हो गया तो भी मुझे स्वयं से कोई शिकायत नहीं होगी, क्योंकि अपना मूल लक्ष्य मैं प्राप्त कर चुका हूं !