आचार नाम से शास्त्रविहित अनुष्ठेय कुछ कार्यों को समझना अर्थात् शास्त्र में जिन कायों को विधेय कहकर निर्दिष्ट किया गया है, जिनका अनुष्ठान अवश्य ही करना होगा उसी को आचार अर्थात आचरण समझना चाहिए । शास्त्रविधि निन्दित कार्यों को भी आचार कहा जाता है, किन्तु वह कदाचार है । अतएव आचार शब्द से शास्त्र विधि-विहित अनुष्ठेय कार्य समष्टि को समझा जाता है । आचार सप्तविध हैं ।
यथा- वेदाचार वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धान्ताचार और कौलाचार । इस समय कौन आचार किस प्रकार का है, उसका लक्षण निर्देशित किया जा रहा है ।
वेदाचार :-
साधक ब्राह्म मुहूर्त में गात्रोत्थान पूर्वक गुरुदेव के नाम के अंत में ‘आनन्दनाथ’ यह शब्द उच्चारण करके उनको प्रणाम करेगा । सहस्रदल पद्म में ध्यान लगकर पञ्चोपचार से पूजा करेगा और वाग्भव बीज (एं) मन्त्र दश अथवा उससे अधिक बार जप करके परम-कला कुलकुण्डलिनी शक्ति के ध्यानान्तर यथाशक्ति मूलमंत्र जप करके जप समापन के अन्त में बहिर्गमन करके नित्यकर्म विध्यनुसार से त्रिसन्ध्या स्नान और समस्त कर्म करेगा । रात्रि में देवपूजा नहीं करना चहिये । पर्वदिन में मद्य, मांस का परित्याग करना, चाहिये और ऋतुकाल को छोड़कर स्त्रीगमन नहीं करना चाहिये । यथाविहित अन्यान्य वेदिक अनुष्ठान करें।
वैष्णवाचार :-
वेदाचार के व्यवस्थानुसार सर्वदा नियमित क्रियानुष्ठान में तत्पर रहेगा । कभी भी मैथुन तथा उससे संक्रांत बात भी नहीं करेगा । हिंसा, निदा, कुटिलता, मांसभोजन, रात में माला जप . और पूजा-काये वजनक करेगा । श्रीविष्णुदेव की पूजा करेगा और समस्त जगत् को विष्णुमय देखेगा ।
शैवाचार :-
वेदाचार के नियमानुसार से शैवाचार की व्यवस्था की गई है । परन्तु शैवों में विशेष यह है कि पशुघात निषिद्ध है । सर्व कर्मों में शिवनाम का स्मरण करेगा और व्योम् ब्योम् शब्द द्वारा गाल बजायेगा ।
दक्षिणचार :-
वेदाचार के क्रम से भगवती की पूजा करेगा और रात्रियोग में विजया (सिद्धि) ग्रहण कर गद्गद् चित्त से मन्त्र जप करेगा । चतुष्पथ में, श्मशान में, शून्यागार मे, नदीतीर पर, मृत्तिका तल, के नीचे पर्वतगुहा में, सरोवर तट पर, शक्तिक्षेत्र में पीठ स्थल में, शिवालय में, आंवला वृतक्षल पर, पीपल अथवा बिल्वमूल में बैठकर महाशंख माला (नरास्थि माला) द्वारा जप करेगा ।
वामाचार :-
दिन में ब्रह्मचर्य और रात्रि में पद्मतत्व (मद्य मांसादि) द्वारा साधक देवी की आराधना करेगा । चक्रानुष्ठान मन्त्रादि जप करेगा । यह वामाचार क्रिया सर्वदा मातृजारवत् गोपनीय है । पञ्चतत्व और ख-पुष्प (*ख-पुष्प अर्थात् स्वयंभू, कुण्ड, गोलक और वन पुष्प, इन सभी गुप्ततत्त्वों को इसी स्थान पर गुप्त रखना समीचीन समझना) के द्वारा कुल स्त्री की पूजा करेगा; उसके होने से वामाचार होगा। वामस्वरूपा होकर परमा प्रकृति की पूजा करेगा ।
सिद्धान्ताचार :-
जिससे ब्रह्मानन्द ज्ञान प्राप्त हो जाय, जिस प्रकार वेद, शास्त्र, पुराणादि में गूढ़ ज्ञान होता है । मन्त्र द्वारा शोधन करके देवी का प्रीतिकर जो पञ्चतत्त्व है, उसको पशुशंका वर्जनपूर्वक प्रसादरूप में सेवन करेगा । इस आचार की साधना के लिये पशुहत्या द्वारा (यज्ञादि सदृश) कोई हिसा दोष नहीं होगा । सदा रुद्राक्ष अथवा अस्थि माला और कपालापत्र (खोपड़ी) साधक धारण करेगा और भैरव-वेश धारण के साथ निर्भय होकर प्रकाश्य स्थान पर विचरण।करेगा ।
कौलाचार :-
कौलाचारी व्यक्ति को महामन्त्र-साधना में दिशा और काल का कोई नियय नहीं है । किस स्थान पर शिष्ट किस स्थान पर भ्रष्ट अथवा ” कहाँ भूत अथवा पिशाचतुल्य होकर नाना वेश सहित को लक्ष्यक्त भूमण्डल पर विचरण करेगा। कौलाचारी व्यक्ति का कोई निर्दिष्ट नियम नहीं है । उसके लिए स्थानास्थान कालाकाल अथवा कभक में आदि का थोड़ा भी विचार नहीं होता है ।
कर्दम और चन्दन में समान ज्ञान शत्रु, और मित्र में समज्ञान, श्मशान और गृह में समज्ञान क कांचन और तृण में समज्ञान इत्यादि–अर्थात् कौलाचारी व्यक्ति प्रकृत जितेन्द्रिय होता है । (अतः अन्तिमतत्व की साधन का अधिकारी है) अर्थात् वह निःस्पृह, उदासीन और परम योगीपुरुष और अवधूत शब्द का द्योतक है ।
अन्तःशक्ता वहिः शैवाः सभायां वैष्णवा मताः ।
नाना वेशधराः कौला विचरंति महीतले । श्यामारहस्य ।
अन्दर से शाक्त, बाहर से शैव, सभा मध्य में वैष्णव इसी प्रकार नाना वेशधारी कौल समस्त पृथ्वी में विचरण करता है ।
साधारण आचार की अपेक्षा वेदाचार, वेदाचार से वैष्णवाचार, वेदाचार से शैवाचार, शैवाचार से दक्षिणाचार, दक्षिणाचार से वामाचार, वामचार से सिद्धान्ताचार और सिद्धान्तचार से कौलाचार श्रेष्ठ होत है;
कौलाचार ही आचार की अन्तिम सीमा है, इससे श्रेष्ठ आचार नहीं है । साधक को वेदाचार से आरम्भ करके क्रम से उन्नति की उपलब्धि करनी होती है; एक ही बार में कोई कौलाचार में आगमन नहीं कर सकता है ।