इस सृष्टि की जो सर्वोच्च ज्ञात महाशक्ति है इसको गुप्तगायत्री कहा गया है, और यह अत्यन्त गहन व गुह्य विद्या है, इसके प्रत्येक बीज अक्षर मंत्र के रूप में अनंत गोपनीय रहस्य छुपे पड़े हैं जिसे हम शास्त्रार्थ, धर्मचर्चा अथवा विवेचना आदि से कदापि नहीं जान सकते हैं, इस परम गुह्य विद्या को मात्र गहन साधना के माध्यम से ही जान व प्राप्त कर सकते हैं, अन्यथा कदापि नहीं !!!
अधिकतर सज्जन व साधक यह जानते हैं कि श्रीविद्या अथवा कोई भी एक महाविद्या ही सर्वोपरि सत्ता है, जबकि यथार्थ में ऐसा नहीं है ! अनेकों महाविद्या उपासक अपनी थोड़ी सी भौतिक उपलब्धि के अहंकार से आकंठ परिपूर्ण होकर स्वयं के द्वारा साधित मूल शक्ति के एक अंश मात्र स्वरूप महाविद्या को सर्वोपरि बताते हुए अन्य उपासकों को तुच्छ मानते व कहते हुए पाए जाते हैं, ओर उनके इस व्यवहार के लिए यदि उनका प्रतिरोध किया गया तो उसको अपना अपमान मानकर भीषण कष्ट देने वाले निम्न श्रेणी के तन्त्र प्रयोग सहित मारण प्रयोग तक करते हुए देखा है, ऐसा हमारे स्वयं के साथ ओर हमारे ही सामने अन्य के साथ होते हुए हमने देखा है, उनका यही व्यवहार उनकी अपरिपक्वता ओर साधना से परे होने को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है !
अपनी अपरिपक्वता का प्रतिरोध किये जाने पर भीषण कष्ट देने वाले निम्न श्रेणी के तन्त्र प्रयोग सहित मारण प्रयोग तक करने वाले वह साधक जिसकी उपासना करते हैं यदि तनिक भी अपने आराध्य के साथ उनकी निकटस्थता हो तो उनको तो सभी में अपने आराध्य की ही छवि दिखनी चाहिए, ओर ऐसा बहुत ही दुर्लभ होता है, अन्यथा सभी दैवीय शक्ति के नाम पर केवल अपने भौतिक अहंकार की ही उपासना करते हुए पाए जाते हैं, ओर अंत में वह अपने इस अहंकार में ही विलीन हो जायेंगे न कि सर्वोपरि सत्ता में !!!
यदि श्रीविद्या अथवा कोई भी एक महाविद्या ही सर्वोपरि सत्ता है तो जो दस महाविद्यायें जानी जाती हैं उनका भी मूल स्रोत क्या है जहाँ से वो आविर्भूत हुई हैं ??? अहंकार के उपासक इस प्रश्न पर या तो शब्दों का जाल बुनते हैं, प्रत्याघात करते हैं अथवा मौन होकर विषय बदल लेते हैं, क्योंकि उनकी सीमा ही उतनी होती है !
श्रीविद्या अथवा महाविद्या साधना किसी भी साधना का प्रारम्भ अथवा अंत नहीं है, यह तो मध्य के छोटे छोटे आयाम मात्र हैं, जिनकी उत्पत्ति गुप्तगायत्री से है और विलय भी गुप्तगायत्री में ही है ! क्योंकि गुप्तगायत्री ही वह सर्वोच्च किन्तु सर्वथा गोपनीय व अंतिम ज्ञात शक्ति है जिसको गहन साधना करके ही जाना जा सकता है किन्तु उसके मूल स्रोत को केवल वह स्वयं ही जानती है अन्य कोई नहीं जानता है !!!
गुप्तगायत्री ही वह अंतिम ज्ञात शक्ति है जो इस समस्त चराचर को संचालित नियमित व संयमित कर अपने आवरण में समाहित रखती है, उत्पत्ति, स्थिति, संहार व निर्वात में तैरते हुए ग्रह पिण्ड आदि को यथावत् रखने वाली कारण मात्र जो अदृश्य शक्ति है, शिव रूपी पंचतत्व व पंचतत्व से निर्मित इस समस्त सृष्टि में दृश्य-अदृश्य जड़-चेतन जिसकी कल्पना मात्र से क्रियाशील ओर निष्क्रिय होते हैं, इस सृष्टि के समस्त दृश्य-अदृश्य जड़-चेतन सहित श्रीविद्या, ब्रह्मविद्या, महाविद्याएं रूपी महाशक्तियां व ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र आदि श्रृष्टि के नियंता, दिक्पाल आदि सृष्टि के पालक तथा समस्त ज्ञान-विज्ञान, गुण, धर्म आदि जिसकी कल्पना अथवा क्रीड़ा मात्र से उत्पन्न होकर नियुक्त हुए हैं ! जिसका उत्पत्ति, स्थिति, संहार के रूप में हम बोध मात्र कर सकते हैं, वो ही इस श्रृष्टि की सर्वोच्च जननी, नियंता व ज्ञात शक्ति है जिसके अत्यंत गोपनीय होने के कारण उसको गुप्तगायत्री कहा जाता है !
गुप्तगायत्री की साधना अत्यंत कठिन व दुर्गम है, इसलिए इसके उपासक भी बहुत दुर्लभ ही होते हैं ! यह गुप्तगायत्री मूलविद्या “त्रय अक्षरी विद्या” है ! जब साधक इस विद्या की साधना करता है तो यह अनायास ही अत्यंत तीक्ष्ण ऊर्जा व ऊष्मा के साथ अपने साधक के पांचों शरीर कोषों अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय ओर आनंदमय कोष को क्रमशः भेदते हुए क्रमशः तीन से छः, नौ, द्वादश ओर अंत में पंचदशाक्षरी के रूप में अपनी वृद्धि करते हुए साधक के आत्मतत्व को स्वयं में लीन कर लेती है, ओर यहाँ से यह अपने विस्तार के परा व अपरा के रूप में दो मार्ग निर्माण करती है ! साथ ही यदि वह उपासक पंचदशाक्षरी विद्या पर आकर ठहर गया और इसकी गति को आगे का विस्तार व मार्ग न दिया ओर देहगत स्थिति में शीतल स्थान पर निवास न किया तो इसकी ऊर्जा व ऊष्मा इतनी अधिक तीक्ष्ण होती है कि वह महाविस्फोट कर जाती है और पांचों शरीर कोषों को विकृत कर देती है, इसलिए गुप्तगायत्री के साधक को सदैव शीतल स्थान पर रहकर त्रय अक्षरी विद्या से प्रारम्भ करके षोडशाक्षरी श्रीविद्या तक आना अनिवार्य होता है और इसकी गति को किसी एक अथवा क्रमशः दोनों मार्गों पर आगे का विस्तार देना होता है !
प्रथम मार्ग :- साधक के आनंदमय कोष के अतिशय पुष्ट होने पर सत, रज, तम आदि गुण से परिपूर्ण चार बीजाक्षर के रूप में हादी, कादी, सादी ओर वादी इन चार परमविद्याओं के रूप में उत्पन्न होती है और यही चार परमविद्याएं शक्ति के चार कुल श्रीकुल, कालीकुल, ताराकुल ओर त्रिपुराकुल कहलाते हैं ! इन चारों कुलों में उस कुल के बीजाक्षर से युक्त होकर क्रमशः चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को देने वाली “षोडशाक्षरी विद्या” कहलाती है !
इसके उपरान्त यह मूलविद्या प्रत्येक कुल में प्रत्येक पुरुषार्थ के अनुरूप चार-चार महाविद्याओं अर्थात कुल सोलह महाविद्याओं के रूप में उत्पन्न होकर अपना विस्तार करती है !
द्वितीय मार्ग :- साधक के विज्ञानमय कोष के अतिशय पुष्ट होने पर ब्रह्मविद्या के रूप में अपना विस्तार करती है, और ब्रह्मविद्या से समस्त अगम-निगम को जन्म देती है ! ब्रह्मविद्या के इस विषय को इससे अधिक यहाँ सार्वजनिक नहीं किया जा सकता है !
इस मूलविद्या की साधना को केवल गुप्तगायत्री के सिद्ध उपासक गुरु के निर्देशन में रहकर कोई बिरला ही सम्पन्न कर सकता है ! इस विद्या को केवल वो ही जान सकता है जो इसको साध सकता है, अन्यथा इस विद्या को न तो कोई समझा सकता है और न ही कोई समझ सकता है !
(यह लेख मेरे द्वारा अपने साधनात्मक शोधों पर लिखित पुस्तक का एक अंश है जिसका सर्वाधिकार व मूल प्रति हमारे पास सुरक्षित है, अतः कोई भी संस्था, संस्थान, प्रकाशक, लेखक या व्यक्ति इस लेख का कोई भी अंश अपने नाम से छापने या प्रचारित करने से पूर्व इस लेख में छुपा लिए गए अनेक तथ्यों के लिए शास्त्रार्थ व संवैधानिक कार्यवाही के लिए तैयार रहना सुनिश्चित करें !)