मेरे शिष्य एवं उनके सिद्धान्तमय जीवन की अनिवार्यता !

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

मेरे लिए मेरे शिष्य मेरी सन्तान के समान हैं, तथा उनके लिए किसी प्रकार का नवीन कर्मबन्धन नहीं बनाने वाले ओर पूर्व के कर्मबन्धनों को काटने वाले उनके सामान्य गृहस्थ जीवन के लिए आवश्यक कर्म, उनके सर्वतोन्मुखी विकास व आध्यात्मिक उत्थान का मार्गदर्शन व उनको श्रेष्ठ कर्मों को सम्पन्न करने के लिए प्रेरित करना मेरा कर्तव्य है ।

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में उसके पूर्वजन्म व कुछ वर्तमान जन्म में किए गए कर्मों के परिणाम से उतार चढ़ाव ओर कष्ट आते जाते ही रहते हैं । तथा ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिए मनुष्य बहुत से ऐसे कर्म कर लेता है जिससे उसको वर्तमान में तो कष्ट से मुक्ति मिल जाती है, किन्तु भविष्य के लिए इससे कहीं अधिक बुरे कष्टों की नींव रख दी जाती है । ओर भविष्य की दुर्गति से बचने के लिए मनुष्य को स्वस्थ मानसिकता से सही निर्णय लेने की आवश्यकता होती है ।

किन्तु मैं अपने किसी भी शिष्य को कर्मबन्धनों में बंधने वाले कर्म करने के लिए न तो निर्देशित कर सकता हूं, ओर न ही किन्हीं भी परिस्थितियों में उनके लिए कोई ऐसा कर्म कर सकता हूं जिससे मेरा या मेरे किसी शिष्य का कर्मबन्धन बने ओर मुझे या मेरे किसी शिष्य को उस कर्म के दुष्परिणाम या पीड़ा को भोगना पड़े ।

मेरी अपनी दृष्टि में मेरा व्यवहार सभी के लिए अनुकूल है, किन्तु सिद्धान्तों के विरुद्ध आचरण करने वाले ओर सिद्धान्तों के विरुद्ध मुझसे कोई अपेक्षा रखने या आग्रह करने वाले सज्जनों को मुझसे निराशा ही प्राप्त होनी सुनिश्चित होती है ।

लगभग सभी को सिद्धान्तों के अनुसार जीवन जीने में बाधा या कठिनाई भासित होती है, किन्तु बड़ा आश्चर्य यह है कि कोई भी ऐसा जीवन नहीं जीता है, यह केवल भ्रम फैला हुआ है कि सिद्धान्तों के अनुसार जीवन जीने में बाधा या कठिनाई होती है ।

यदि यह कठिन है तो सोचो कि जैसा जीवन आप जी रहे हैं या जीना चाहते हैं, उसमें आप कितने मानसिक स्वतन्त्र, सक्षम ओर समृद्ध हैं ?

यदी यही सही ओर आसान है तो आप परेशान क्यों हैं ? ओर इससे छूटकर ओर अधिक अच्छा जीवन क्यों प्राप्त करना चाहते हैं ?

एक बार केवल एक सप्ताह भर के लिए सिद्धान्तमय जीवन जीकर तो देखो इस संसार का पूरा खेल ही समझ में आ जाएगा, ओर तब आता है स्वछन्द जीवन जीने का मधुर आनन्द ।

इसलिए मैं अपने शिष्यों को सिद्धान्तों के अनुकूल जीवन जीने के लिए बाध्य करता हूं, ओर मेरे शिष्यों के लिए यही आवश्यक होता है कि वह सदैव स्वस्थ मानसिकता के धनी बने रहें ओर अपनी स्वस्थ मानसिकता से श्रेष्ठ निर्णय लेते हुए अपने जीवन का प्रत्येक क्षण आनन्द, उन्माद व समृद्धि पूर्वक जिएं किन्तु कोई भी ऐसा कार्य न करें जिससे उनको इस लोक या पर लोक में कष्ट भोगने पड़ें ।

किन्तु यदि वह ऐसा नहीं करते हैं तो उनको अनिवार्य रूप से सदैव के लिए मुझसे पृथक हो जाना होता है ।