एक शब्द के अर्थ का अनर्थ और असंख्य पीढियां अन्धकार में !

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

एक शब्द के अर्थ के अनर्थ से कितने विद्वानों द्वारा असंख्य पीढ़ियों के अस्तित्व को अन्धकार की गर्त में धकेला जा चुका है, इसका कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता है !!

क्योंकि :-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वं सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ।।भागी18/66।।

अर्थात् :-
सभी प्रकार के धर्मों को त्याग कर केवल मेरी शरण में आजा ।
मैं तुम्हें सभी पापों से “मोक्ष (मुक्त)” कर दूंगा (न कि “क्षमा” कर दूंगा) ।

इस श्लोक का अर्थ निकालने में बहुत से विद्वान “मोक्ष” के स्थान पर “क्षमा” का उपयोग करते हैं । जबकि “मुक्त” करने ओर “क्षमा” करने में बहुत अधिक भेद होता है ।

जैसे कि :- श्री कृष्ण ने पितामह भीष्म को उनके पाप के कर्मफल स्वरूप शरशैय्या पर जाने दिया, किन्तु भीष्म की पीड़ा का हरण करके भीष्म को पीड़ारहित कर्म “भुक्त” करवाकर “मुक्त” किया था ! किन्तु भीष्म को “क्षमा” नहीं किया था, क्योंकि “क्षमा” करने से केवल कर्मफल से अवकाश ही मिलता है “मुक्ति” नहीं मिलती है !!

हमारी सनातन संस्कृति का कोई भी देव, देवी, ऋषि, मुनि, साधु, ग्रन्थ आदि पौराणिक एवं श्रृष्टेय सिद्धान्तों के अनुसार इस कर्मप्रधान श्रृष्टि में किसी भी प्रकार से “क्षमा” का समर्थन ही नहीं करते हैं ।

हमारी सनातन संस्कृति के सभी देव, देवी, ऋषि, मुनि, साधु, सन्त, तपस्वी, ग्रन्थ आदि पौराणिक एवं श्रृष्टेय सिद्धान्तों के अनुसार स्पष्ट रूप से केवल “कर्मप्रधान श्रृष्टि” की व्याख्या करते हैं ओर “कर्मफल की भुक्ति से मुक्ति” का निर्देश ही देते हैं । गरूड़ पुराण में तो पूरा विषय ही श्रृष्टेय सिद्धान्तों एवं जीव के कर्म एवं कर्मफल से सम्बन्धित है ।

हमारी सनातन संस्कृति के पौराणिक सिद्धान्तों के अनुसार इस कर्मप्रधान श्रृष्टि में किसी के प्रति “क्षमा” का समर्थन केवल उस परिस्थिती में ही सम्भव एवं प्रभावी है जब जीव स्वयं अपने “दोष का पश्चाताप द्वारा क्षरण” संकल्पित कर लेता है ।

वहीं सनातन संस्कृति के गर्भ से जन्मे कुछ सम्प्रदाय/समुदाय ऐसे भी हैं जो आमजनमानस को यह कहकर भ्रमित करते आए हैं कि कुछ वर्ष पूर्व ही पैदा हुए उनके देवता या गुरू ही सर्वोपरि भगवान, परमात्मा हैं, अतः उनके उस भगवान, देवता या गुरू की शरण में या उनके सम्प्रदाय/समुदाय में आ जाओ तो उनका वह भगवान, देवता या गुरू तुम्हारे पापों या दुःखों को “क्षमा” करके तुमको मोक्ष प्रदान कर देगा ।

यदि कुछ सम्प्रदाय/समुदायों के देवता या गुरू जीवों के पापों को “क्षमा” करके मोक्ष देने का ठेका लिए बैठे हैं तो फिर श्रृष्टेय नियम व सिद्धान्तों का क्या ?

किसी भी संस्कृति, सम्प्रदाय, समुदाय या परम्परा के प्रचारकों के पास लुभावने प्रवचन देकर आमजनमानस को अपनी ओर आकर्षित करने के अतिरिक्त ऐसा कुछ भी नहीं है जो किसी के पापों को “क्षमा” करके उसे पाप से “मुक्त” करने को प्रमाणित कर सके । जबकि सभी संस्कृति, सम्प्रदाय, समुदाय व परम्पराओं के पास पाप के लिए “दण्ड विधान” द्वारा “कर्मफल की भुक्ति से मुक्ति” के नियम व निर्देश ही प्रचूरता से उपलब्ध हैं ।

यदि इस कर्मप्रधान सम्पूर्ण श्रृष्टि में “क्षमा” का इतना ही महत्व है तो आदिकाल से ही दण्ड विधान व दण्ड संहिताएं (कुछ समुदायों में तो पैशाचिक सीमाओं का भी अतिक्रमण करते हुए दण्ड विधान भी) ही सभी अवस्थाओं में महत्वपूर्ण क्यों रहे हैं ?

जब इन देवता या गुरूओं द्वारा जीवों के पापों को “क्षमा” करके उनको पापमुक्त करने से ये देवता या गुरू दूषित हो जाते हैं, फिर इन देवता या गुरूओं को अपने दोषों ओर पापों को मिटाने के लिए CBI, IT, ED जैसे लोकों के दरबारों में सतसंग सुनने जाना पड़ता है ।

क्योंकि पाप हो या पुण्य हो उससे “मुक्त” तो उसके “भुक्त” हो जाने पर ही हुआ जा सकता है, जबकि सैद्धान्तिक रूप से इस कर्मप्रधान सम्पूर्ण श्रृष्टि में “क्षमा” के लिए तो कोई स्थान ही शेष नहीं है ।