एक दिन हम एक सज्जन के निमन्त्रण पर उनके घर गए हुए थे, तो वहां उनके परिवार के सभी सदस्यों ने आकर हमें प्रणाम किया जिनमें उनकी किशोरवय पुत्री (जो किसी की बहन, किसी की पत्नी, किसी की मां) भी थी, जो कि उस समय पैंट ओर बनियान धारण किए हुए थी, इससे पूर्व भी हमने उसको ऐसे ही अमर्यादित वस्त्रों में देखा था ।
अपना धर्म, अधिकार ओर कर्तव्य मानकर एकान्त समय पर हमने उन सज्जन से अधिकारपूर्वक कहा कि आप अपनी पत्नी के माध्यम से अपनी पुत्री से कहना कि वो पूरे तन को ढंकने वाले आंचल युक्त मर्यादित व शालीन वस्त्र धारण किया करे ।
तो उन्होंने उत्तर दिया कि :- हमने इसको बोला था कि आप डांटोगे इसलिए आपके सामने न आया करे, फिर भी आपको प्रणाम करने आ ही जाती है ।
हमने कहा :- तुम्हारी दृष्टि में उसका हमारे सामने आना या न आना महत्वपूर्ण है या तुम्हारे घर की इज्जत का ऐसे बेहूदा फूहड़ वस्त्र “जिनसे शरीर को ढंकने पर भी शरीर का कोई अंग उघाड़ने को शेष ना रहा हो ऐसे वस्त्रों को पहनना ही महत्वपूर्ण है ?”
उन्होंने कहा :- आजकल के बच्चों के ऐसे ही शौक हैं, ये सब आजकल बस ऐसा ही पहनते हैं ।
हमने कहा :- तुम्हारी बेटी तुम्हारे सामने आधे अधूरे जींस बनियान आदि अमर्यादित वस्त्र पहने रहती है, उनमें से भी कुछ तो बीसों जगह से फटे हुए होते हैं, तुम्हारी पुत्री के ऐसे अर्धनग्न जैसी रहने को तुम्हारे द्वारा उसका शौक समझना ये तुम्हारा कौन सा शौक हुआ ?
उन्होंने कहा :- आप ऐसा क्यों सोचते हो, आप ऐसा मत सोचो, इन बातों को रहने दो !
हमने कहा कि :- हम क्या सोचें ओर क्या न सोचें, क्या देखें ओर क्या न देखें यह ज्ञान हमें न देकर स्वयं को ओर अपनी बहनों/पुत्रीयों ओर पत्नियों को दो कि उनको लज्जा शर्म हो या न हो किन्तु नूपुर, कंकण ओर आंचलमय वस्त्रों से रहित जींस, पैंट, नेकर, बनियान जैसे फूहड़, फटे हुए आधे अधूरे वस्त्र पहने हुए ओर सुहागन होकर भी विधवा जैसा भेष बनाए हुए किसी भी नारी को देखकर हमें तो शर्म भी आती है, घृणा भी होती है ओर क्रोध भी आता है ।
क्योंकि वस्त्र चाहे कोई भी हो ओर कैसा भी हो वह दिखने, दिखाने के लिए व शरीर को ढंक कर लोकलज्जा निवारण के निमित्त ही धारण किया जाता है, न कि त्वचा के ऊपर वस्त्र से बनी रंगीन झिल्ली चढ़ाकर अंग – प्रत्यंग प्रदर्शन करने हेतु ।
क्योंकि वस्त्रों को बनाने हेतु विभिन्न रचनात्मकताओं बनावटों का उपयोग ही इसलिए किया जाता है कि किस बनावट का वस्त्र धारण करके कौन कैसा दिखना चाहता है, ओर कैसा दिखता है । फिर जो जैसा पहनेगा वह वैसा ही दिखेगा भी, ओर उसको देखने वाले का उसके प्रति भाव भी वैसा ही बनेगा । जैसे कि :-
सैनिक ओर सन्त के वेष को धारण करते ही धारण करने वाले ओर उसे देखने वाले उन दोनों के ही भाव परिवर्तित हो जाते हैं ।
(आप पृथक – पृथक सम्मेलनों में कोट पैंट, कुर्ता पायजामा ओर कुर्ता धोती पहनकर जाकर परिधान के अनुसार भावों में होने वाले इस परिवर्तन को परिक्षण सहित अनुभव कर सकते हैं ।)
क्योंकि हमारे शास्त्रों में राक्षसी, पिशाचिनी, डाकिनी आदि वीभत्स प्रजाति की मादाओं का ही ऐसे बेहूदा, फूहड़, फटे हुए ओर आधे अधूरे वस्त्र पहने हुए अर्धनग्न वीभत्स स्वरूप में वर्णन किया गया है, सनातन संस्कृति की कन्या, नारी ओर देवी का नहीं ।
सनातन संस्कृति की कन्या, नारी ओर देवी तो “आंचल” से युक्त घाघरा, साड़ी आदि अत्यन्त शालीन एवं मर्यादित वस्त्रों व नूपुर, कंकणादि आभूषणों से सुशोभित वह सौम्य सरल दिव्य स्वरूप होता है जिसको देखते ही उसके प्रति सम्मान व संरक्षण की भावना हृदय में स्वतः ही तत्क्षण उत्पन्न हो जाती है, ओर उस मातृत्व स्वरूपा आद्याशक्ति पर दृष्टिपात् होते ही नेत्रदृष्टि स्वतः ही उसके चरणों को स्पर्श करने को व्याकुल होकर उसके चरण स्पर्श कर आती है ।
ओर इस प्रकार से इतने संवाद के साथ ही उन सज्जन ने अपने घर की लज्जा की रक्षार्थ प्रयत्न करने के विपरीत हमारे साथ सम्पर्क, संवाद व आवागमन को सदैव के लिए अवरूद्ध कर लिया । हमारा ऐसा संवाद ओर ऐसा अवरोधन अनेक सज्जनों के साथ हुआ है ।
ऐसे सभी सज्जनों ने स्वयं ही हमसे नाता तोड़कर बहुत अच्छा किया, क्योंकि ऐसी घटिया मानसिकता के मर्यादाहीन लोगों से हम दूरी बनाते तो सम्भवतः उनको अच्छा नहीं लगता ।
हमारे इस लेख से यदि किसी प्राणी या उसके स्वाभिमान को कोई ठेस पहुंची हो तो वह इस लेख का तब तक पुनः पुनः अवलोकन करता रहे जब तक वह अपने घर की सम्मानहीन होती जा रही लज्जा को शालीन व मर्यादित वस्त्रों से ना ढंक ले ।
(द्वारा :- श्री नीलकण्ठ गिरी)
(प्रकृति व देह तन्त्र रहस्य, 125/1 संस्कृति व उन्माद रहस्य, दिनांक :- 07/02/2010)
(हमारा यह लेख हमारी इस वेबसाईट wwwneelkanthgiri.com पर बौद्धिक सम्पदा, काॅपीराईट एवं अनुच्छेद (19) अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार के अधीन प्रकाशित है ।)