किसी के उज्जवल भविष्य के निर्माण हेतु यदि उससे अल्पकाल, दीर्घकाल अथवा सदैव के लिए पृथक हो जाना ही अन्तिम व सर्वश्रेष्ठ विकल्प हो तो किन्चित भी विचलित हुए बिना इस विकल्प को धारण कर लेना चाहिए ।
यह मानवीय नहीं बल्कि यह श्रृष्टि का वृद्धि एवं संवर्धन का मूल सिद्धान्त है ।
क्योंकि वृक्ष अपने बीज को जब वृक्ष के रूप में अस्तित्व में आते हुए देखने की अभिलाषा से परिपूर्ण होता है, तो वह अपने बीज को सदैव के लिए स्वयं से पृथक कर देता है । उसी के परिणाम स्वरूप वह बीज वृक्ष से सदैव के लिए पृथक हो जाने के उपरान्त ही वृक्ष के रूप में अपने अस्तित्व को धारण करने हेतु “संघर्ष रूपी यज्ञ” को प्रारम्भ कर सकता है । जिस बीज का यह “यज्ञ” सम्पन्न हो जाता है वही बीज वृक्ष के रूप में अस्तित्व को धारण करता है ।
ओर इस विधान से अस्तित्व में आया हुआ वृक्ष प्रकृति के झंझावातों को झेलते हुए बिना किसी विशेष देखभाल ओर पालन – पौषण के आत्मनिर्भर रहकर जिजीविषा से सम्पन्न रहते हुए भलीभांति सफलतापूर्वक फलता व फूलता है । जबकि बोए हुए बीज ओर लगाए हुए पौधे को देखभाल एवं पौषण आदि की पर्याप्त आवश्यकता होती है । इन आवश्यकताओं की पर्याप्त पूर्ति किए जाने के उपरान्त भी बोए हुए बीज या लगाए हुए पौधे समूल सूख जाया करते हैं ।
क्योंकि बोए हुए बीज ओर लगाए गए पौधों को केवल पौषण दिया गया होता है, परिस्थितियों से लड़ने का अनुभव ओर जिजीविषा नहीं दी गई होती है, इसलिए इनका जीवन ओर भविष्य सदैव संदिग्ध ही रहता है ।
(द्वारा :- श्री नीलकण्ठ गिरी)
(प्रकृति व देह तन्त्र रहस्य, 124/3 कर्तव्याधिकार रहस्य, दिनांक :- 10/10/2009)