इस श्रृष्टि में श्रीविद्या के बारह सम्प्रदायों में से चार सम्प्रदाय ह्यग्रीव, लोपामुद्रा, आनन्दभैरव ओर भट्टारक सम्प्रदाय ही प्रचलित हुए हैं । इनमें से ह्यग्रीव सम्प्रदाय ही श्रीविद्या का सबसे प्राचीन एवं श्रीविद्या विषयक सबसे समृद्ध प्रचलित सम्प्रदाय है ।
ह्यग्रीव सम्प्रदाय की प्राचीनता को प्रमाणित करने के लिए इतना ही कहना पर्याप्त है कि ब्रह्माण्ड पुराण के उत्तरखण्ड में वैष्णवावतार महामहिम श्री ह्यग्रीव जी द्वारा महामुनि अगस्त जी के समक्ष “श्री ललितोपाख्यान” का बखान किया गया था। उस “श्री ललितोपाख्यान” से ही श्री ललिता सहस्रनाम, श्रीविद्या एवं श्रीविद्या तन्त्र सम्बन्धित चौंसठ यन्त्रों, नित्याओं व कलाओं की अवस्थिती सर्वप्रथम स्पष्टतः दृष्टिगोचर है ।
वैष्णवावतार महामहिम श्री ह्यग्रीव जी द्वारा महामुनि अगस्त जी के समक्ष व्यक्त “श्री ललितोपाख्यान” से ही श्री भगवती ललिता महात्रिपुरसुन्दरी जी के विस्तृत श्रृष्ट्यात्मक एवं रचनात्मक स्वरूपों का बोध होता है, जिससे श्री ललिता सहस्रनाम का प्रादुर्भाव हुआ है ।
वैष्णवावतार महामहिम श्री ह्यग्रीव जी द्वारा महामुनि अगस्त जी के समक्ष व्यक्त “श्री ललितोपाख्यान” से ही श्री भगवती ललिता एवं श्रीविद्या से सम्बन्धित श्रीयन्त्र सहित चौंसठ यन्त्रों की संरचना एवं उन यन्त्रों में विद्यमान होने वाली शक्तियों के नाम, स्थान, दिशा, मुद्रा, आदि की स्थिती सर्वप्रथम स्पष्ट हुई है । जिससे श्रीयन्त्र आदि यन्त्रों का निर्माण एवं उनका उपयोग समाज में प्रचलित हुआ ।
वैष्णवावतार महामहिम श्री ह्यग्रीव जी द्वारा महामुनि अगस्त जी के समक्ष व्यक्त “श्री ललितोपाख्यान” से ही श्री भगवती ललिता एवं श्रीविद्या तन्त्र सम्बन्धित नित्याओं, कलाओं एवं योगिनियों की अवस्थिती सर्वप्रथम स्पष्टतः दृष्टिगोचर हुई है । जिससे श्रीविद्या तन्त्र का सृजन हुआ है ।