मैं धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक विषयों, अनेक विद्याओं, तन्त्र व अनेक भाषाओं का ज्ञाता नहीं हुं, ओर न ही मैं इन सब का ज्ञाता बनना चाहता हुं । जो थोड़ा बहुत इकट्ठा हो गया है, उसको भी किसी कबाड़ी को बेच देना चाहता हूं, बेचना इसलिए आवश्यक है क्योंकि उसके मेरे पास इकट्टठा होने में मेरा बहुत सारा बहुमूल्य समय व्यय हुआ है ।
क्योंकि इन सब भौतिक उपलब्धियों से समाज, सम्प्रदाय, अपनी सुविधानुसार बनाई हुई उत्पीड़नयुक्त न्यायिक प्रणाली, देश, सत्ता, यश, ऐश्वर्य, प्रतिष्ठा, धन, संसाधन, आजीविका, उत्पीड़न व अतिक्रमण तो कुछ काल या “एक जीवनपर्यन्त” के लिए चल सकता है, किन्तु इन सब में “आत्मा व आध्यात्म” कदापि स्वस्थ नहीं रह सकता है । इसलिए इन सभी भौतिक उपलब्धियों व उनसे सृजित “प्रतिष्ठा व कर्म बन्धनों” को प्राप्त करना मेरा उद्देश्य ही नहीं है ।
केवल मेरे आध्यात्मिक “श्री गुरूदेव जी” ने मुझे जैसा बनाया है, मैं वैसा ही हूं ओर वैसा ही रहूंगा, ओर उनके द्वारा प्रदत्त विद्याओं के अतिरिक्त शेष “भौतिक ज्ञान” को त्याग कर “यथार्थ विज्ञान” को धारण कर तप, रोग व कष्ट आदि द्वारा कर्म बन्धनों से स्वतन्त्र होकर, प्रकृति व समाज से प्राप्त उपहारों को अधिकारपूर्वक वापस लौटाते हुए “निष्कण्टक निवृत्ति” को प्राप्त करना ही मेरा एकमात्र लक्ष्य है ।
ओर आप सब यहीं मौज करोगे क्या ??? “ज्ञान ओर अहं” से बहुत दूर देश में “आप स्वयं” भी रहते हो, कभी “स्वयं” से भी मिल लिया करो !!! नहीं तो कर्म बन्धनों के परिणाम स्वरूप हुई तुम्हारी दुर्दशा को देख देखकर मैं तो बहुत हंसा करूंगा !
जय मां श्री महात्रिपुरसुन्दरी सर्वतत्वसारसुन्दरी ।
द्वारा :- श्री नीलकण्ठ गिरी महाराज
(प्रकृति व देह तन्त्र रहस्य, 108/7 आत्मचक्र रहस्य, 04/09/2003)