सम्पत्ति :- यह तत्व की वह अतिनिम्न अवस्था होती है जो कभी भी किसी की व्यक्तिगत नहीं होती है, वह सदैव भ्रान्तियुक्त, सार्वजनिक, संरक्षित, व्यवहार में निष्प्रयोज्य, निष्फल, गुणहीन व प्राणहीन स्मृति होती है । तथा इसमें कोई भी द्वितीय निष्प्रभावी पक्ष भी अपने मत व चरित्र के अनुसार हस्तक्षेप कर सकता है । ओर इसकी वास्तविकता को कोई भौतिक जीवनयापी नहीं जानता है ।
क्योंकि जब व्यवहार में निष्प्रयोज्य होने के कारण किसी ने व्यवहार में ही नहीं लिया तो उसके प्रभाव की व्याख्या कोई मूर्ख या धूर्त ही दे सकता है ।
किन्तु किसी भी प्रकार से प्रयोज्य नहीं होने बाद भी श्रुति, स्मृति, श्रवण – कथन के रस, द्वारा अपने वर्चश्व को भ्रान्ति के रूप में सर्वत्र बनाए रखने के कारण ही यह “सम्पत्ति” कहलाती है । ओर भ्रान्ति के रूप में सर्वत्र विद्यमान हो जाना ही इसका दु:खद अन्त होता है ।
ओर ऐसी सम्पत्ति को हर कोई केवल अन्यों को ही बांट देना चाहता है, अपनी संतति को भी अग्रसारित नहीं करना चाहता है । जबकि मूर्खों व धूर्तों की यह अचल सम्पत्ति होती है ।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण आप अपने पास संचित ज्ञान को ही देख लीजिए, आपने अपने पास संचित उस ज्ञान की “सम्पत्ति” से उसको श्रवण व कथन के रस के अतिरिक्त क्या पाया ?
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चलो छोड़ो ! आप किसी भी प्राचीन स्मारक को ही देख लीजिए, वह देखने व दिखाने के अतिरिक्त ओर किस काम की होती है ?
इस लेख में “मैं क्या कहना चाहता हुं” यह मुझे ही ज्ञात नहीं है तो आपको क्या ज्ञात हो सकता है !!!
वैसे हमारी यह बात प्रत्येक व्यक्ति को अनेक प्रकार से निश्चित ही प्रभावित करती है ।
जय त्रिपुरेश्वरी भ्रान्तिचक्र धारिणी ।
द्वारा :- श्री नीलकण्ठ गिरी महाराज
(प्रकृति व देह तन्त्र रहस्य, 118/1 भ्रान्तिचक्र रहस्य, 04/09/2007)