आचार्य के लिये उचित यही है कि जिस कर्म का जो विधान है उसको निष्ठापूर्वक उसी विधान से ही क्रियान्वित करने के अतिरिक्त अनावश्यक संक्रमण/अतिक्रमण नहीं करना चाहिए ।
यजमान को प्रसन्न करने के लिए उस कार्य को उसकी पूरी पद्धति से विधिवत् सम्पन्न करने स्थान पर उस कर्म कि मर्यादा के साथ साथ अपनी विद्या ओर अपने स्वाभिमान के प्रति कोई समझौता न करें ।
स्मरण रहे कि पूजन विधि देव और ऋषियों की प्रसन्नता के लिए है, जिससे मनुष्य को पुण्यफल की प्राप्ति की प्रार्थना की जाती है ।
यजमान का भी कर्तव्य है कि योग्य आचार्य को विधि-निषेध के संबंध में अपने अनुरूप दबाव न बनायें, अपनी विचारधारा अनुरूप अशास्त्रीय विधि का आग्रह न करें, और आचार्य जी के निर्देशन में पूरा समय देते हुए भाव और श्रद्धा से कार्य करें।तभी किसी भी अनुष्ठान पूजन का फल प्राप्त होगा ।
स्मरण रहे कि यदि आपके परिवारजन, या अन्य कोई, (चाहे वे बालक, वृद्ध आदि भी हों) पूजन के समय यदि देवता, विधि या आचार्य की अवमानना, अवहेलना, परिहास, निंदा या उपेक्षा मन-वचन-कर्म से किसी प्रकार करते हैं तो यह घोर पाप ही है ।
इन स्थितियों में आचार्य चेतावनी और प्रतिकार के लिए अधिकृत है ।
यदि आचार्य जी भी व्यवहार और दक्षिणा आदि की चिंता में इसका प्रतिकार नहीं करते तो उन्हें आठगुना पाप होता है ।
इन सब विषयों पर चर्चा न करने का परिणाम हम ज्ञान विक्रय के नाम पर कुधर्म प्रचार के रूप में देख रहे हैं ।