इस संसार में देश, समाज, धर्म, सम्प्रदाय, संस्कृति की समस्त गतिविधियों के संचालन के निमित्त मनुष्यों में विभिन्न प्रकार की संस्थाएं होती हैं, और प्रत्येक संस्था व संस्थाध्यक्ष अपने चरित्र व परिस्थितियों के अनुसार अपने हित व उद्देश्यपूर्ति हेतु अपनी भाषा, लिपि, शब्दावलियों, न्यायिक प्रणालियों, धार्मिक, शैक्षिक व सांस्कृतिक प्रावधानों को निर्धारित कर प्रकृति के विरूद्ध कृत्रिम संविधान को प्रभावी करते हैं, जिससे मनुष्य ने अपने आप को सम्पूर्ण विश्व में अनेक भाषाओं, धर्म, संस्कृति, सम्प्रदाय व जातियों में बांट रखा है ।
जिसका मूल उद्देशय प्रकृति, अन्य जीवों व अन्य समुदायों की नैसर्गिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करना व उनका शोषण करना ही है । ओर ऐसे संविधान का प्रकृति के नियम, सिद्धान्तों से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं होता है । क्योंकि ये सभी नियम, प्रावधान मनुष्यों द्वारा देश, काल, आवश्यकता, परिस्थिती व अपने चरित्र के अनुसार समय समय पर बनाए व परिवर्तित किए जाते हैं ।
जिसका सबसे बड़ा उदाहरण आप यहां समझ सकते हैं, कि विश्व के प्रत्येक देश, समाज, धर्म, सम्प्रदाय, संस्कृति व जातियों ने अभी तक जितने भी नियम, प्रावधान बनाए हैं, वह सब केवल अपने हित, अपने सम्प्रभुत्व व सत्तात्मक शस्त्र के रूप में ही बनाए गए हैं । जिनमें इन प्रत्येक संस्थाओं के अतिरिक्त प्रकृति, अन्य जीवों, अन्य सम्प्रदायों व समुदायों के निज व नैसर्गिक अधिकारों के संरक्षण के लिए तो कोई प्रावधान ही नहीं बनाया गया है ।
यहां तक कि मनुष्यों के प्रत्येक समुदाय व सम्प्रदायों ने धर्म, सम्प्रदाय व जातियों के नाम पर आपस में ही एक दूसरे मनुष्यों के अन्य धर्म, सम्प्रदाय व समुदायों के अहित, उन्हें नीचा दिखाने व उनके विनाश के अस्पष्ट उद्देशय से ही धार्मिक, सामाजिक व जातीय संगठनों व प्रावधानों का सृजन किया हुआ है । जिसके परिणाम स्वरूप एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के अधिकार के हनन के रूप में परोक्ष रूप से मानव भक्षण करने की ही स्थिति में है ।
यदि हमारे वेदों के सूत्रों या किसी प्रकृतिप्रिय व्यक्ति ने मनुष्य सहित प्रकृति व अन्य धर्म, सम्प्रदाय, जातियों व जीवों के नैसर्गिक अधिकारों के संरक्षण के लिए किसी अधिकार व प्रावधान को बनाया भी है तो, या तो उस व्यक्ति का ही दमन कर दिया जाता है अथवा ऐसे नियम के दृढ़ता पूर्वक पालन करने का प्रभावी कठोर प्रावधान इस पूरे विश्व के किसी भी देश, धर्म, सम्प्रदाय, समुदाय व जाती के संविधान में उपलब्ध नहीं है ।
“इस सबसे “वसुधैव कुटुम्बकम्” जैसा श्रेष्ठ वाक्य पुस्तकों व विद्वानों के सम्मेलनों की शोभा बढ़ाने तक ही सीमित रह गया है ।”
जबकि इस प्रकृति में मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीवों की व्यवस्था बिना किसी कृत्रिम संविधान के निर्बाध गति से संचालित होती है, जिसमें वो प्रकृति के नियम व प्रकृति प्रदत्त अपनी प्रवृत्ति के अनुसार अपना जीवन यापन करते हुए मनुष्य की भांती “कम से कम अपनी ही प्रजाती का अहित” तो नहीं करते हैं ।
इस विषय पर विद्वान जनों से विवाद व तर्क नहीं, बल्कि विश्लेषण व समाज को उचित मार्गदर्शन की अपेक्षा रहेगी ।
जय त्रिगुणात्मिका प्रवृत्ति स्वरूपिणी ।
द्वारा :- श्री नीलकण्ठ गिरी महाराज
(प्रकृति व देह तन्त्र रहस्य, 111/4 श्रृष्टि प्रवृत्ति रहस्य, 06/09/2003)