श्रीयन्त्र में 2916 देवी देवताओं की सामूहिक अदृश्य शक्ति विद्यमान रहती है । इसीलिए इसे यन्त्रराज, यन्त्र शिरोमणि, षोडशी यन्त्र व देवद्वार भी कहा गया है । ऋषि दत्तात्रेय व दूर्वासा ने श्रीयन्त्र को मोक्षदाता माना है । जैन शास्त्रों ने भी इस यन्त्र की प्रशंसा की है ।
जिस प्रकार शरीर व आत्मा एक दूसरे के पूरक हैं उसी तरह देवता व उनके यन्त्र भी एक दूसरे के पूरक हैं । यन्त्र को देवता का शरीर और मन्त्र को आत्मा कहते हैं। यन्त्र और मन्त्र दोनों की साधना उपासना मिलकर शीघ्र फलदेती है । जिस तरह मन्त्र की शक्ति उसकी ध्वनि में निहित होती है उसी तरह यन्त्र की शक्ति उसकी रेखाओं व बिंदुओं में होती है ।
श्रीयन्त्र का निर्माण :- श्रीयन्त्र का रूप ज्यामितीय होता है । इसकी संरचना में बिंदु, त्रिकोण या त्रिभुज, वृत्त, अष्टकमल का प्रयोग होता है । तन्त्र के अनुसार श्रीयन्त्र का निर्माण दो प्रकार से किया जाता है- एक अंदर के बिंदु से शुरू कर बाहर की ओर जो ‘सृष्टि-क्रिया निर्माण’ कहलाता है और दूसरा बाहर के वृत्त से शुरू कर अंदर की ओर जो ‘संहार-क्रिया निर्माण’ कहलाता है। श्रीयन्त्र में 9 त्रिकोण या त्रिभुज होते हैं जो निराकार शिव की 9 मूल प्रकृतियों के द्योतक हैं। मुख्यतः दो प्रकार के श्रीयन्त्र बनाये जाते हैं – सृष्टि क्रम और संहार क्रम। सृष्टि क्रम के अनुसार बने श्रीयन्त्र में 5 ऊध्र्वमुखी त्रिकोण होते हैं जिन्हें शिव त्रिकोण कहते हैं। ये 5 ज्ञानेंद्रियों के प्रतीक हैं। 4 अधोमुखी त्रिकोण होते हैं जिन्हें शक्ति त्रिकोण कहा जाता है। ये प्राण, मज्जा, शुक्र व जीवन के द्योतक हैं। संहार क्रम के अनुसार बने श्रीयन्त्र में 4 ऊध्र्वमुखी त्रिकोण शिव त्रिकोण होते हैं और 5 अधोमुखी त्रिकोण शक्ति त्रिकोण होते हैं। यह श्रीयन्त्र कश्मीर संप्रदाय में कौल मत के अनुयायी उपयोग में लाते हैं।
श्रीयन्त्र में 9 त्रिभुजों का निर्माण इस प्रकार से किया जाता है कि उनसे मिलकर 43 छोटे त्रिभुज बन जाते हैं जो 43 विभिन्न देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। मध्य के सबसे छोटे त्रिभुज के बीच एक बिंदु होता है जो समाधि का सूचक है अर्थात यह शिव व शक्ति का संयुक्त रूप है। इसके चारों ओर जो 43 त्रिकोण बनते हैं वे योग मार्ग के अनुसार यम 10, नियम 10, आसन 8, प्रत्याहार 5, धारण 5, प्राणायाम 3, ध्यान 2 होते हैं । इन त्रिभुजों के बाहर की तरफ 8 कमल दल का समूह होता है जिसके चारों ओर 16 दल वाला कमल समूह होता है। इन सबके बाहर भूपुर है ।
मनुष्य शरीर की भांति ही श्रीयन्त्र की संरचना में भी 9 चक्र होते हैं जिनका क्रम अंदर से बाहर की ओर इस प्रकार है- केंद्रस्थ रक्त बिंदु फिर पीला त्रिकोण जो सर्वसिद्धिप्रद कहलाता है। फिर हरे रंग के 8 त्रिकोण सर्वरक्षाकारी हैं। उसके बाहर काले रंग के 10 त्रिकोण सर्वरोगनाशक हैं। फिर लाल रंग के 10 त्रिकोण सर्वार्थ सिद्धि के प्रतीक हैं। उसके बाहर नीले 14 त्रिकोण सौभाग्यदायक हैं। फिर गुलाबी 8 कमलदल का समूह दुख, क्षोभ आदि के निवारण का प्रतीक है। उसके बाहर पीले रंग के 16 कमलदल का समूह इच्छापूर्ति कारक है। अंत में सबसे बाहर हरे रंग का भूपुर त्रैलोक्य मोहन के नाम से जाना जाता है। इन 9 चक्रों की अष्ठिात्री 9 देवियों के नाम इस प्रकार हैं:- 1. त्रिपुरा 2. त्रिपुरेशी 3. त्रिपुरसुन्दरी 4. त्रिपुरवासिनी, 5. त्रिपुराश्री, 6. त्रिपुरामालिनी, 7. त्रिपुरासिद्धा, 8. त्रिपुरांबा और 9. महात्रिपुरसुन्दरी ।
मकान, दुकान आदि का निर्माण करते समय यदि उनकी नींव में प्राण प्रतिष्ठत श्रीयन्त्र को स्थापित करें तो वहां के निवासियों को श्रीयन्त्र की अदभुत व चमत्कारी शक्तियों की अनुभूति स्वतः होने लगती है। श्रीयन्त्र की पूजा से लाभ: शास्त्रों में कहा गया है कि श्रीयन्त्र की अद्भुत शक्ति के कारण इसके दर्शन मात्र से ही लाभ मिलना शुरू हो जाता है । इस यन्त्र को मंदिर या तिजोरी में रखकर प्रतिदिन पूजा करने व प्रतिदिन कमलगट्टे की माला पर श्री सूक्त के पाठ श्री लक्ष्मी मन्त्र के जप के साथ करने से लक्ष्मी प्रसन्न रहती है और धनसंकट दूर होता है ।
यह यन्त्र मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष देने वाला है। इसकी कृपा से मनुष्य को अष्टसिद्धि व नौ निधियों की प्राप्ति हो सकती है । श्रीयन्त्र के पूजन से सभी रोगों का शमन होता है और शरीर की कांति निर्मल होती है । इसकी पूजा से पंचतत्वों पर विजय प्राप्त होती है । इस यन्त्र की कृपा से मनुष्य को धन, समृद्धि, यश, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति होती है। श्रीयन्त्र के पूजन से रुके हुए कार्य बनते हैं । श्रीयन्त्र की श्रद्धापूर्वक नियमित रूप से पूजा करने से दुख दारिद्र्य का नाश होता है । श्रीयन्त्र की साधना उपासना से साधक की शारीरिक और मानसिक शक्ति पुष्ट होती है । इस यन्त्र की पूजा से दस महाविद्याओं की कृपा भी प्राप्त हो सकती है । श्रीयन्त्र की साधना से आर्थिक उन्नति होती है और व्यापार में सफलता मिलती है ।
आज बाजार में अनेक धातुओं ओर रत्नों के बने श्रीयन्त्र आसानी से प्राप्त हो जाते हैं, किंतु वे विधिवत सिद्ध व प्राणप्रतिष्ठित नहीं होते हैं । सिद्ध श्रीयन्त्र में विधिपूर्वक हवन-पूजन आदि करके देवी-देवताओं को प्रतिष्ठित किया जाता है तब श्रीयन्त्र समृद्धि देने वाला बनता है । ओर यह भी आवश्यक नहीं है कि श्रीयन्त्र रत्नों का ही बना हो, श्रीयन्त्र तांबे पर बना हो अथवा भोजपत्र पर बना हो, जब तक उसमें मन्त्र व देवशक्ति विधिपूर्वक प्रवाहित नहीं की गई हो तब तक वह श्री प्रदाता अर्थात फल प्रदान करने वाला नहीं होता है, इसलिए सदैव विधिवत प्राणप्रतिष्ठित श्रीयन्त्र ही स्वीकार करना चाहिए ।
अन्दर से खोखला श्रीयन्त्र किसी भी मूल्य पर नहीं स्वीकारना चाहिए, अन्दर से खोखला श्रीयन्त्र मानसिक शक्ति, शान्ति, आन्तरिक क्षमता व अर्थोपार्जन की क्षमताओं को क्षीण करता है, अतः ऐसे श्रीयन्त्र को निःशुल्क अथवा धन व रत्नों के साथ उपहार अथवा दयास्वरूप भी प्राप्त करने से अनन्त कोटि गुणा उचित रहेगा कि आप ऐसे श्रीयन्त्र को प्राप्त ही न करें । वह श्रीयन्त्र जिस धातु से बना हो उसी धातु से अन्दर से ठोस श्रीयन्त्र को ही स्वीकार करना चाहिए तथा उस श्रीयन्त्र को श्रीविद्या के किसी पूर्णज्ञाता से विधिवत चैतन्य कराने के उपरान्त ही व्यवहार में लेना चाहिए ।