यह तो सर्व विदित है कि श्रीविद्या साधना चतुर्विध पुरुषार्थ अर्थात धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष प्रदायिनी एक मात्र साधना है ! लोक लोकान्तर व मत मतान्तर में इस साधना को लेकर बहुत अधिक भ्रम भी व्याप्त हैं ! किन्तु श्रीविद्या के मूलतः चार कुल हैं, और प्रत्येक कुल एक समान ही फलदायी भी है, केवल प्रत्येक कुल की साधना में साधना विधान व भाव का भेद होता है !
श्रीविद्या के प्रत्येक कुल में चार-चार महाविद्याओं का समूह होता है व प्रत्येक समूह में एक बालरुपा (धर्म की अधिष्ठात्री), एक तरुण रूपा (अर्थ की अधिष्ठात्री), एक प्रौढ़ा रूपा (काम की अधिष्ठात्री) व एक वृद्धा रूपा (निवृत्ति/मोक्ष की अधिष्ठात्री) महाविद्या शक्ति होती हैं !
और यह मूलविद्या अपने साधक को फल भी इसी क्रम से ही प्रदान करती है तब जाकर श्रीविद्या साधना से चतुर्विध पुरुषार्थ की पूर्ण प्राप्ति होती है ! ओर चार-चार महाविद्याओं का समूह होने के कारण ही इस समूह को श्रीविद्या कहा जाता है ! यथा :-
श्रीकुल_________कालीकुल__________ताराकुल__________त्रिपुराकुल
धर्म – बाल रूप – षोडशी____________काली_______तारा_____कामाक्षी
अर्थ – तरुण रूप – त्रिपुरसुन्दरी_______???________???_____???
काम – प्रौढ़ा रूप – राजराजेश्वरी_______???_______???______???
मोक्ष – वृद्धा रूप – ललिताम्बा________???_______???______???
श्रीविद्या की दीक्षा के बाद साधना करते हुए सन्यासी व गृहस्थ साधक को प्रथम पुरुषार्थ धर्म की अधिष्ठात्री बालरूपा महाविद्या शक्ति अपने नियन्त्रण व धर्म में स्थित करती है, इसके लिए वह अपने साधक के धर्म विरुद्ध सभी कर्मों व अवस्थाओं को अवरुद्ध कर देती है, ताकि वह अपने साधक के लिए नीति, न्याय व धर्म से परिपूर्ण स्वच्छ व स्वस्थ कर्मों, आय व अवस्थाओं का पुनर्निर्माण कर सके ! इसी मध्य पराम्बा अपने साधक के मन मस्तिष्क को ऐसी ऊर्जा से भर देती है कि वह साधक केवल धर्म का ही अनुसरण करता है !
तदुपरांत साधक के पुर्णतः धर्मनिष्ठ हो जाने पर बालरूपा महाविद्या शक्ति अपने साधक को द्वितीय पुरुषार्थ अर्थ की अधिष्ठात्री तरुणीरूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित करती है जहाँ द्वितीय पुरुषार्थ अर्थ की महाविद्या शक्ति अपने साधक के लिए नीति, न्याय व धर्म से परिपूर्ण स्वच्छ व स्वस्थ कर्मों, आय व अवस्थाओं का पुनर्निर्माण कर अपने साधक को धर्म के अधीन ही अर्थोपार्जन के अनेक मार्ग बनाकर सन्यासी को पूर्ण तृप्ति व गृहस्थ साधक को असीमित अन्न, धन से परिपूर्ण कर तृतीय पुरुषार्थ काम की प्रौढ़रूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित कर देती है !
फिर तृतीय पुरुषार्थ काम की अधिष्ठात्री प्रौढ़ा रूपा महाविद्या शक्ति अपने साधक को धर्म व अर्थ से परिपूर्ण रखते हुए सन्यासी को इन्द्रिय, तत्व व अवस्थाओं पर नियन्त्रण तथा गृहस्थ को भौतिक शासन सत्ता सहित असीमित सुख भोगों को प्रदान कर चतुर्थ पुरुषार्थ मोक्ष की वृद्धारूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित कर देती है !
जहाँ वह मोक्ष की अधिष्ठात्री वृद्धा रूपा महाविद्या शक्ति अपने सन्यासी व गृहस्थ साधक को सदैव के लिए स्वयं में समाहित कर लेती है, इसमें भी गृहस्थ को यह सौभाग्य मृत्यु के समय और सन्यासी को जीवित रहते हुए ही प्राप्त हो जाता है !
और इस गहन विद्या का निम्नलिखित दोनों में से किसी भी एक मार्ग से साधना पूर्ण कर चुका साधक इसके बाद अन्य भौतिक साधनाओं को नहीं करता है, क्योंकि इसके बाद अन्य साधनाओं की उसको न तो कोई आवश्यकता ही रह जाती है, और न ही वह साधनाएं उस साधक को किसी प्रकार से प्रभावित कर पाती हैं ! अर्थात मारण, मोहन, वशीकरण, तुष्टि, पुष्टि, शान्ति आदि षट्कर्म मोक्षाभिलाषी व श्रीविद्या उपासक के लिए नहीं होते हैं, और यह षट्कर्म श्रीविद्या उपासक को प्रभावित भी नहीं कर पाते हैं ! यह षट्कर्म करना तो उन लोगों का कार्य होता है जिनको यह षट्कर्म करके इन कर्मों के परिणामों को अनेक योनि व सुख दुःख के रूप में भोगने के लिए यहीं पर जीवन मृत्यु के चक्र के मध्य ही अनन्त काल तक घूमते रहना होता है !
यह साधना मुख्यतः दो प्रकार से की जाती है :-
प्रथम प्रकार में :- तो श्रीविद्या पूर्णाभिषेक दीक्षा लेकर साधना संपन्न की जाती है, जिसका प्रथम चरण (जो कि एक ही बार अथवा दो, तीन बार के प्रयास से ही) पूर्ण होने के बाद शेष तीन चरणों के लिए साधक स्वतन्त्र हो जाता है, और केवल कर्ता व दृष्टा मात्र होता है, क्योंकि प्रथम पद धर्म में स्थित होने के बाद के तीनों चरणों में पराम्बा द्वारा अपने साधक को स्वयं में लीन कर लेने तक की क्रिया को पराम्बा अपने साधक से स्वयं ही संपन्न कराती है, और इसी मध्य पराम्बा अपने साधक के सभी कर्मों को भी आंशिक रूप में भोगवाकर कर्मों के बंधन से निवृत कर देती है, क्योंकि मोक्ष के लिए कर्म बंधन से निवृत्ति परम अनिवार्य है ! इस प्रकार से शेष तीन चरण भी सहज ही संपन्न हो जाते हैं, और साधक को नियमों की बाध्यता भी प्रभावित नहीं करती है ! यह विधि सर्वोत्तम है क्योंकि इसमें एक बार प्रथम चरण किसी प्रकार पूर्ण होने के बाद साधक पर पराम्बा का स्वतन्त्र नियन्त्रण हो जाने के कारण पथभ्रष्ट, पतन व त्रुटि होने की सम्भावनाएं पुर्णतः शून्य हो जाती हैं ! किन्तु इस विधि से साधना करने वाले साधक को गुरुगम्य होना भी अनिवार्य होता है, तभी तो गुरु उस शिष्य की पात्रता व ग्राह्यता के आधार पर उसको गहन रहस्यों को समझाते हुए एक या दो बार के प्रयास में ही सफल होने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है !
दुसरे प्रकार में :- उपरोक्त महाविद्या शक्तियों की बालरूपा से वृद्धा रूपा तक की चारों महाविद्याओं की एक-एक करके क्रमशः दीक्षा लेकर साधना करते हुए क्रमशः धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करते हुए साधना की जाती है, इसमें प्रत्येक अवस्था के अनुसार पृथक-पृथक दीक्षा लेकर प्रत्येक के लिए नियमों की बाध्यता सहित पृथक-पृथक साधना विधान पूर्ण करना पड़ता है, जिसमें यह भी अनिवार्य ही नहीं होता है कि चारों महाविद्याओं के पृथक-पृथक साधना विधान एक-एक या दो-दो बार में ही निर्बाध संपन्न हो जायेंगे अथवा नहीं ? और इसी कारण से इस विधि से साधना करना कठिन होता है, क्योंकि बार-बार के नियमों की बाध्यता सहित पृथक-पृथक साधना व दीक्षा विधान पूर्ण कर कर के गुरुगम्य साधक भी हताश हो जाया करते हैं ! यदि यह क्रम पूर्ण हो जाए तब पराम्बा चतुर्थ चरण में अपने साधक के सभी कर्मों को भी आंशिक रूप में भोगवाकर कर्मों के बंधन से निवृत कर उसका मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है !
किन्तु चारों पुरुषार्थों की कामना करने वाले साधकों को अकेले किसी एक महाविद्या की साधना करके चारों पुरुषार्थों को प्राप्त कर लेने की भावना व आग्रह से सदैव दूर ही रहना चाहिए, क्योंकि यदि आप केवल धर्म की सूचक बाल स्वरुपा महाविद्या की उपासना करते हैं तो धर्म के साथ-साथ आपके पास धन व सत्ता भी हो यह अनिवार्य नहीं है, क्योंकि बाल स्वरुपा महाविद्या पुर्णतः धर्म ही सिखाती हैं ! और यदि आप केवल अर्थ की सूचक तरुण स्वरुपा महाविद्या की उपासना करते हैं तो थोड़ा सा धन हाथ में आते ही आप धर्म को कैसे भूल जाते हैं यह आपको स्वयं ही ज्ञात है, क्योंकि तरुण स्वरुपा महाविद्या अतिशय धन के मार्ग बनाती हैं ! इसी प्रकार से यदि आप केवल काम की सूचक प्रौढ़ा स्वरुपा महाविद्या की उपासना करते हैं तो थोड़ा सा धन ओर भले ही छोटा सा ग्राम प्रधान के रूप में थोड़ी सत्ता हाथ में आते ही आप धर्म, नीति ओर मानवता को कैसे भूल जाते हैं यह भी आपको स्वयं ही ज्ञात है, क्योंकि प्रौढ़ा स्वरुपा महाविद्या शासन सत्ता प्रदान करती हैं ! तो फिर ऐसे में कर्म बंधन से मुक्त हुए बिना चतुर्थ पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति केवल दिवास्वपन से अधिक और कुछ नहीं है, किन्तु यदि धर्म की सूचक बाल स्वरुपा महाविद्या की उपासना व उसका अनुसरण करते हैं तो धर्म जनित संस्कार आपको मोक्ष मार्गी होने के लिए प्रेरित अवश्य ही करेंगे !
चारों पुरुषार्थों की कामना करने वाले साधकों को श्रीविद्या पूर्णदीक्षा अथवा क्रमदीक्षा के सम्पूर्ण चारों क्रम की साधना को संपन्न करना चाहिए ! और इस प्रकार से किसी भी कुल में श्रीविद्या की पूर्णदीक्षा अथवा क्रमदीक्षा के सम्पूर्ण चारों क्रम की पूर्ण साधना संपन्न कर चुका साधक धर्म से प्रारम्भ होकर मोक्ष तक निश्चित ही पहुँच जाता है, यह परम सत्य है !